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________________ शास्त्रवार्त्तासमुच्चय कहा जा सकता है कि एक प्राणी द्वारा अपने किए काम का फल भोगा जाना वास्य - वासक भाव के कारण संभव होगा ( अर्थात् इस स्थिति के कारण संभव होगा कि वासक मन द्वारा किए गए काम का फल वास्य मन भोगता हैं); लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि प्रस्तुत वादी का मत स्वीकार करने पर उक्त वास्य - वासक भाव ही असंभव हो जाता है । यदि पूछा जाए कि वह कैसे असंभव हो जाता है तो हमारा उत्तर होगा 'इस सम्बन्ध में कोई भी विकल्प संभव न होने के कारण' । १०० वासकाद् वासना भिन्ना अभिन्ना वा भवेद्यदि । भिन्ना स्वयं तया शून्यो नैवान्यं वासयत्यसौ ॥ ३२६ ॥ हम पूछते हैं कि वासना वासक मन से भिन्न है अथवा अभिन्न; यदि भिन्न तब तो वासक मन वासना से शून्य हुआ और ऐसी दशा में वह किसी अन्य मन को वासित नहीं कर सकता । अथाभिन्ना न संक्रान्तिस्तस्या वासकरूपवत् । वास्ये सत्यां च संसिद्धिर्द्रव्यांशस्य प्रजायते ॥ ३२७॥ यदि कहा जाए कि वासना वासक मन से अभिन्न है तब इसे वासना का वास्य मन में प्रवेश उसी प्रकार असंभव होगा जैसे कि वासक मन के स्वरूप का वास्य मन में प्रवेश असंभव हैं; और यदि वासक मन स्वरूप का वास्य मन में प्रवेश संभव मान लिया गया तब इस मत की सिद्धि हो गई कि क्रमशः उत्पन्न अनेक वस्तुओं में समान भाव से रहनेवाला तथा 'द्रव्य' पारिभाषिक नाम वाला भी कोई तत्त्व हुआ करता है । टिप्पणी- " क्रमशः उत्पन्न अनेक वस्तुओं में समान भाव से रहने वाला तथा 'द्रव्य' पारिभाषिक नाम वाला भी कोई तत्त्व हुआ करता है" यह हरिभद्र की अपनी मान्यता है । असत्यामपि संक्रान्तौ वासयत्येव चेदसौ । अतिप्रसंगः स्यादेवं स च न्यायबहिष्कृतः ॥३२८॥ यदि कहा जाए कि वास्य मन में किसी प्रकार का ( अर्थात् वासना का अथवा अपने स्वरूप का) प्रवेश कराए बिना भी वासक मन उसे वासित करता है तो वह मनमानी बात कहता होगा, और मनमानी बातों का तर्क के क्षेत्र में अवस्थान निषिद्ध है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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