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________________ प्रधान संपादकीय मुगल सम्राट अकबर की विद्वत्सभा के विद्वदरत्न कवि पद्मसुन्दर की अद्यावधि अप्रकाशित संस्कृत रचना यदुसुन्दर महाकाव्य का प्रकाशन करते ला. द. विद्यामंदिर को बड़ा ही हर्ष हो रहा है । प्रस्तुत महाकाव्य १२ सर्गों में विभक्त है। यह महाकाव्य पद्मसुन्दर की सर्जकता और पंडिताई का द्योतक है । वसुदेव और कनकावती के प्रेम और परिणय की कथा इस महाकाव्य में निरूपित हुई है। वसुदेवहिंडी के कनकावती लम्भक में तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के ८ वें पर्व के वनकावती परिय नामक तृतीय सर्ग में यह कथावस्तु मिलती है। डॉ. डी. पी. रावल ने बड़े ही परिश्रम से इस महाकाव्य का संपादन किया है और इस संपादन को प्रस्तुत करके उन्होंने सौराष्ट्र युनिवर्सिटी की पीएच० डी० की उपाधि प्राप्त की है। अपनी प्रस्तावना में उन्होंने पद्मसुन्दरसरि के जीवन और कृतियों का परिचय दिया है तथा महाकाव्य की कथावस्तु का विस्तृत आलेखन कर उसका मूल्यांकन किया है। इसलिए उन्हें अनेकशः धन्यवाद । संस्कृत साहित्य के अध्येताओ और विद्वानों को इस नये संपादन से लाभ होगा एसा मेरा पूरा विश्वास है । ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर अहमदाबाद-३८० ००९ १५ जुलाई १९८७ नगीन जी. शाह कार्यकारी अध्यक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002642
Book TitleYadusundara Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorD P Raval
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size6 MB
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