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________________ परिचय सुनिश्चित है कि प्राचीन काल में शकाब्द के उल्लेख के अभाव में विक्रमाब्द का ही ग्रहण होता रहा है । उदयनाचार्य के द्वारा लक्षणावली में उल्लिखित 'तर्काम्बराङ्क' में शक संवत् का ग्रहण तो इसलिये किया गया है कि उन्होंने स्वयं 'शकान्ततः' का स्पष्ट उल्लेख कर दिया है । अतः वहां शक संवत् का ग्रहण किया गया है । अतः वाचस्पति का काल निश्चित रूप से ८४१ ई. है और जयन्त तथा भासर्वज्ञ दोनों ही उनके परवर्ती हैं, दोनों ने ही अनेक स्थलों में उनके मत को उद्धृत किया है । जयन्त ने 'आचार्य' पद से उनका उल्लेख किया है, किन्तु भासर्वज्ञ ने उनका किसी भी प्रकार से उल्लेख न कर उनके विषय को ग्रहण किया है, जैसाकि पहले स्वामी योगीन्द्रा नन्दजो के दिए हुए दो उदाहरणों से स्पष्ट है । वाचस्पति का काल ८४१ ई. मानने से उदयन जो कि ९८४ ई के हैं, उनके बीच में पर्याप्त समय का अन्तराल उपपन्न हो जाता है । वाचस्पति को जयन्त का पूर्ववर्ती मानने से वाचस्पति का काल ८४१ ई. मानने पर वे जयन्त के पूर्ववती हो जायेंगे, यह दूषण भी नहीं रहता । अतः उस अन्तराल के उपपादन के लिये तर्काम्बराङ्क' के स्थान में काल्पनिक अत एव अप्रामाणिक 'तर्कस्वराङ्को' पाठ की कल्पना भी अनावश्यक है। उपर्युक्त रीति से वाचस्पतिकाल ८४१ ई. (नवम शताब्दी का पूर्वार्ध) जयन्तभट्ट का काल ८८३ ई. (नवम शताब्दी का उत्तरार्ध) भासर्वज्ञ का काल ९३० ई. (दशम शताब्दी का पूर्वार्ध) उदयन का काल ९८४ ई. (दशम शताब्दी का उत्तरार्ध) इस प्रकार सभी समजस व चतुरस्न हो जाता है। विद्यास्रोत भास ने अपने ग्रन्थों में कहीं भी गुरु के नाम का उल्लेख नहीं किया है। केवल 'न्यायसार' के अन्त में भासर्वज्ञ ने लिखा है कि अक्षपाद आदि पूज्य आचार्यों ने देवताओं द्वारा अप्राप्य रत्न (न्यायरत्न) को देकर समुद्रों को भी जीत लिया, तिरस्कृत कर दिया, क्योंकि समुद्र द्वारा देवों का दीयमान रत्नभोग से नष्ट होनेवाले हैं तथा उनसे दुःखभावविशिष्ट परमानन्दरूप मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती, 1. जिता: सुमुद्रा गुरुभिर्मदीयः रत्नं दददभिस्त्रिदशरलभ्यम् । प्रदीयमानं सततं द्विजेभ्यः प्रवद्धते चैव करोति मुक्तिम् ।। आचार्यमाराध्य मयापि लब्धं तन्नायायरत्नं स्वपरोपकारि । उत्सर्गित स्वल्पपदैनिबध्य, संसारमुक्त्ये खल्ल सज्जनानाम् ॥-न्यायसार (कलकत्ता, १९१०), पृ. ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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