SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमप्रमाणनिरूपण २०१ परीक्षा में पूर्वपक्षसूत्र तथा उत्तरपक्षसूत्र भी उपमान की शब्दरूपता ही बतला रहे हैं । विस्तारभय से उनका उल्लेख यहां नहीं किया जा रहा है। सूत्रकार ने उष्मान के अन्तर्भाव का निषेध भी अनुमान प्रमाण में ही बतलाया है न कि शब्द प्रमाण में । अतः शब्द प्रमाण में इसका अन्तर्भाव सूत्रकार को संमत है । यदि उपमान का पृथक् प्रामाण्य सूत्रकार को अभीष्ट नहीं है. तो प्रमाणों के त्रित्वसंख्याविशिष्ट होने से 'न चतुष्ट-मैतिह्य पत्तिसंभवाभावप्रामाण्यात्', 'शब्द ऐतिह्यान्र्थान्तरभावादनुमानेऽर्थापत्तिमभवाभावानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेध ' । इन सूत्रों के द्वारा प्रमाणचतुष्टयातिरिक्त ऐतिह्यादि प्रमाणों का शब्द तथा अनुमान में अन्तर्भावप्रतिपादन द्वारा चतुष्वसाधन असंगत होगा । अतः इन परीक्षा सूत्रों द्वारा स्पष्ट सिद्ध है कि सूत्रकार को प्रमाणचतुष्टव ही अभिप्रेत है । उपमान को पृथक् प्रमाण न मानने पर इन परीक्षा सत्रों का विरोध स्पष्ट है. इस आशंका का परिहार करते हुए भासज्ञ ने कहा है कि सत्रकार का परीक्षासूत्रों द्वारा चतुष्ट्व. प्रतिपादन पंचत्वादि अधिक संख्या के परिहारार्थ है न कि न्यून त्रिस्त संख्या के प्रतिषेधार्थ क्योंकि उपमान का कद प्रमाण में अन्तर्भाव प्रमाण सिद्ध है । प्रमाण त्रित्व के सूत्रकारामित होने पर भी उमका अभिधान सत्रकार की इस प्रकार की क्वाचिक शली के कारण है। तात्पर्य यह है कि सत्रकार स्वाभिमत सिद्धान्त का भी कहीं-कहीं कथन लिये नहीं करते कि इस न्यायशास्त्र में ऊहादिशक्ति के अतिशय से सम्पन्न व्यक्तियों का अधिकार है, इस बात को वे बतलाना चाहते हैं । अनः अनभिधान करने पर भी वे ऊहादिशक्त्यतिशय द्वारा उस बात को समझ लेंगे । जैसे. मनम्हित ६ इन्द्रियां सूत्रकार को अभिप्रेत हैं, किन्तु सत्र में इन्द्रियों के पंचत्व का ही उल्लेख है न कि पदव का । अतः प्रमाण त्रित्व का अभिधान न करने मात्र से सत्र का प्रमाण त्रित्व से विरोध माना संभव तहीं। आलोचना सांख्यादि की तरह उपमान का शब्द प्रमाण में अन्तर्भाव हा कर चाहे भासर्वज्ञकृत प्रमाण त्रित्व की स्थापना संगत कही जाय, किन्तु उसे सूत्रकारसम्मत सिद्ध करना समुचित नहीं है। सूत्रकार 'प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि' 1. न्यायसूत्र, ५। 3. न्यायसार, पृ. ३२ 2. . ५।२।२ 4. न्यायभूषण, पृ. ४२६-३२७ 5. Here comes a hard nut to crack and we find in wbat a hopeless quandary our author finds himself in his anxiety to reconcile the view of the Sūtrakāra to bis own view. The ingenuity that our author shows simply amuses us and fails to produce any conviction-Nyaya. sāra, Notes (Poona, 1922), p. 74, भान्या-२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy