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________________ १७८ न्यायसार के लिये 'अनित्यः शब्द ऐन्द्रियकत्वात्' यह अनुमान प्रस्तुत किया। यहां पर इन्द्रियग्राह्य सत्ता आदि जाति में अनित्यत्व का व्यभिचार होने से शब्द में प्रतिज्ञात अर्थ अनित्यत्व का प्रतषेध हो जाने पर बादी धर्मभेद के साथ दूसरी प्रतिज्ञा करता है । जिस प्रकार घट असवंगत अर्थात् अव्यापक है, उसी प्रकार शब्द भी अव्यापक है । अव्यापक होने से घटादि की तरह शब्द अनित्य है । यहां साध्यसिद्धि के लिये वादी में असर्वगतत्व धर्म का शब्द में निर्देश किया है, किन्तु जैसे शब्द में अनित्यत्व की प्रतिज्ञा ही है. वैसे असत्य को भी प्र तेज्ञा ही है । एक प्रतिज्ञा दुसरी प्रतिज्ञा को सिद्ध करने में असमर्थ है । इस प्रकार असमर्थ वस्तु का उपादान करने से यह निग्रहस्थान है, ऐसा भाष्यकार ने सूत्र का व्याख्यान किया है, ' किन्तु यह व्याख्यान उचित नहीं है, जैसाकि धर्मकार्ति ने कहा है कि शब्द असर्वगत है, यह दूसरा हेतु है, न कि दूसरी प्रतिज्ञा ।" क्योंकि असर्वगतस्त्र का ऐन्द्रियकत्व हेतु के विशेषण रूप से उपादान है । तथा एक प्रतिज्ञा को सिद्ध करने के लिये कथ्यमान प्रतिज्ञा प्रतिज्ञान्तर नहीं कहलाती, क्योंकि प्रतिज्ञादि की सिद्धि हेत्वादि से होती है, न कि प्रतिज्ञादि से । इसलिये भासर्वज्ञ ने इस सूत्र की दूसरी व्याख्या प्रस्तुत की है । उनकी रीति से 'सर्वमनित्यं सत्त्वान्' इस अनुमान में सर्वमात्र के पक्षनिविष्ट होने से प्रतिज्ञाव क्य में तदुभिन्न दृष्टान्त के न होने से प्रतिवादी द्वारा प्रतिज्ञात अर्थ का उच्छेद कर देने पर विवादास्पदी भूतत्वरूप धर्म के भेद के साथ प्रतिज्ञा का पुनः कथन प्रतिज्ञान्तर है । अर्थात् पहिले वादी ने प्रतिज्ञा के विशेषणरूप में विवादास्पदीभूतत्व धर्म का कथन नहीं किया था, बाद में किया है । सूत्र में 'तदर्थनिर्देशः ' इस पद में 'तत्' शब्द प्रतिषेध का परामर्शक है और अर्थ शब्द 'मशकार्थो धूमः' की तरह निवृत्ति का वाचक है । अतः तदर्थ का अभिप्राय है - प्रतिषेध की निवृत्ति के लिये । निर्देश शब्द विवादास्पदीभूतत्वरूप विशेषणसहित 'सर्वम् अनित्यम्' इस प्रतिज्ञान्तर का बोधक है । निष्कर्ष यह है कि पहिले वादी ने सामान्यतः सब अनित्य है, यह प्रतिज्ञा की थी, किन्तु इसमें पक्षभिन्न दृष्टान्त न मिलने से प्रतिज्ञात अनित्यत्व अर्थ का प्रतिषेध हो जाने पर उसके परिहार के लिये प्रतिज्ञाविशेषण रूप में विवादास्पदी भूतत्वरूप धर्म का निर्देश कर दिया गया है । अतः जैसे सामान्यतः कथित हेतु का प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध कर देने पर उस हेतु में पश्चात् विशेषण का उपादान करने वाला वादी हेत्वन्तररूप freeस्थान से ग्रस्त होता है, वैसे ही सामान्यतः प्रतिज्ञा का प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध कर देने पर विशेषणोपादानपूर्वक विशिष्ट प्रतिज्ञा का कथन करने वाला वादी प्रतिज्ञान्तररूप निग्रहस्थान से ग्रस्त हो जाता है । 1. न्यायभाष्य, ५/२/३ 2. वादन्याय, पृ. ७६ 3. न्यायभूषण, पु, ३५९-३६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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