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________________ १७६ न्यायसार सकती । अतः संक्षेप से उनका निरूपण किया जा रहा है। संक्षेपतः निग्रहस्थान २२ प्रकार के हैं, जैसाकि 'प्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तरं प्रतेज्ञाविरोधः प्रतिज्ञासन्यासो हेत्वन्तरमर्थान्तरं निरर्थकम वेज्ञातार्थकमप्राप्तकालं न्यूनमधिकं पुनरुक्तमननुभाषणमज्ञानाप्रतिभा विक्षेपो मतानुज्ञा पर्यनुयोज्योपेक्षणं निरनुयोज्यानुयोगोऽपसिद्वान्तो हेत्वाभासाश्च निग्रहस्थानानि'1 इस न्यायसत्र में कहा गया है। प्रतज्ञाहाने आदि विप्रतिपत्ति तथा अप्रतिपत्ति के कारण होने से पराजय करा देते हैं अतः इन्हें निग्रहस्थान कहा गया है। (१) प्रतिज्ञाहानि 'साध्ये प्रतिदृष्टान्नधर्मानुज्ञा प्रतिज्ञाहानिः'' यह प्रतिज्ञाहानि का लक्षण है। लक्ष ग में साध्य शब्द 'साधनमर्हति' इस व्युत्पत्ति से साध्यधर्मवान् पक्ष का बोधक हैं। इस प्रकार पक्ष में प्रतिदृष्टान्त अर्थात साध्यविरुद्ध धर्म की स्वीकृति प्रतिज्ञाहानि है । जैसे-'शब्दः अनित्यः कृतकत्वात् घटवत्' इस अनुमान-प्रयोग के द्वारा वादी ने शब्दरूप पक्ष में अनित्यत्व धर्म की प्रतिज्ञा की है। यहां प्रतिवादी यह कहे कि जैसे घटादि शब्द का अनित्यत्व-साधर्म्य होने के कारण उसे अनित्य माना जाता है, वैसे ही आकाश के साथ अमूर्तत्वसाधर्म्य के कारण शब्द को नित्य क्यों नहीं मान लिया जाय ? इस प्रकार के जातिप्रयोग अथवा अन्य किसी कारण से आकुल होकर वादी यह कह दे कि शब्द को नित्य मान लिया जाय, तब वादी ने शब्दरूप पक्ष में प्रतिदृष्टान्त आकाश के धम नित्वत्व को स्वीकार कर अपनी अनित्यत्वप्रतिज्ञा का भंग कर दिया, अतः वह प्रतिज्ञाहानिरूप निग्रहस्थान में पतित हो जाता है। । सूत्रकार ने यद्यपि प्रतिष्टान्तधर्माभ्यनुज्ञा स्त्रदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः' यह प्रतिज्ञाहानि का लक्षण किया है। अर्थात् स्वदृष्टान्त घटादि में प्रतिदृष्टान्त आकाशादि के नित्यत्वधर्म की अभ्यनज्ञा प्रतिज्ञाहानि है। किन्तु प्रतिज्ञाहानि का यह लक्षण मानने पर स्वदृष्टान्त घटाद में प्रतिदृष्टान्त आकाशादि के धर्म नित्यत्व की अभ्यनज्ञा मानने से घटादि के अनित्यत्व साध्य से विकल होने के कारण साध्य-विकलत्व ही निग्रह का नि मत्त सिद्ध होता है, न कि प्रतिज्ञा-हानि । यदि यह कहा जाय के प्रतिदृष्टान्त आकाशादि के धर्मो को स्वीकार करके वादी स्वदृष्टान्त घटादि का परित्याग कर देता है और उस दृष्टान्त का परित्याग करता हुआ 'तस्मादनित्यः शब्दः' इस निगमनान्त पक्ष का ही प रत्याग कर देता है, अतः प्रतिज्ञाहानि उपपन्न हो जाती है, तो यह समाधान भी उचित नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रकारान्तर से अर्थात उपचार से दृष्टान्तहानि ही प्रतिज्ञाहानि होगी। अतः वार्तिककार उद्योतकर ने सूत्रस्थ स्वदृष्टान्त पद में 'दृष्टश्चासावन्ते व्यवस्थित इति दृष्टान्तः स्वश्चासौ दृष्टान्तश्च'a 1. न्यायसूत्र, ५।२।। 3. . ५।२।२ 2. न्यायसार, पृ. २३ 4. न्यायवार्तिक, ५।२।२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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