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________________ समान निर्लज्ज हो गयी है । वर्षा में भीगती हुई और ठण्ड से काँपती हुई तू कितनी अच्छी लगती है !' कौए और मरा हुआ हाथी कोई बूढ़ा हाथी ग्रीष्मकाल में पहाड़ी नदी पार करते समय नदी के किनारे गिर पड़ा । कोशिश करने पर भी वह उठ नहीं सका और वहीं उसकी मृत्यु हो गयी । भेड़िए और गीदड़ों ने उसके गुदाभाग को खा लिया। उसके गुदाभाग से होकर कौए अन्दर घुस गये । अंदर बैठे-बैठे वे उसका मांस खाने लगे। कुछ समय बाद गर्मी के कारण कौओं का प्रवेश मार्ग संकुचित हो गया । कौओं ने सोचा-अब हम बिना किसी विघ्न-बाधा के यहाँ आराम से रह सकेंगे। वर्षाकाल आरंभ होने पर पहाड़ी नदी के प्रवाह में वह हाथी बह गया और बहते-बहते उसकी लाश समुद्र में पहुँच गयी । मगर-मच्छों ने उसे खा डाला । लाश के अन्दर जल भर जाने से कौए बाहर निकल आये, लेकिन पास में कोई आश्रय न पा उनकी वहीं मृत्यु हो गयी। , बृहत्कल्पभाष्य और वृत्ति, उद्देश १. ३२५२ । यहाँ बन्दर के दृष्टान्त द्वारा लब्धि प्राप्त होने से गर्वोन्मत्त किसी साधु को शिक्षा दी गयी है । आवश्यक नियुक्ति ६८१ में वानर दृष्टान्त आता है। आवश्यकचूर्णी (पृ० ३४५) में इस कहानी का गाथाओं में वर्णन है। तथा देखिए आवश्यक, हारिभद्रीय वृत्ति, पृ० २६२ । पंचतंत्र (मित्रभेद), और कूटिदूसक जातक (३२१) में यह कहानी आती है। इस 'मोटिफ़' की तुलना एक कोटा लोककथा के 'मोटिफ' से की जा सकती है। कोई लड़का ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए जंगल में जाता है। तीन दिन तक वहाँ बैठा रहता है। चौथे दिन उसकी मृत्यु हो जाती है। उसका शरीर फूल जाता है। एक बड़ा चूहा जमीन की मिट्टी खोदकर उसके सारे शरीर पर एक बिल बना लेता है। देखिए, एम बी० एमेनियन (M. B. Fmenean) का जरनल आफ अमेरिकन ओरिटिएल सोसाइटी (६७) में स्टडीज़ इन द फोकटेल्स आफ इंडिया, लेख । वसुदेवहिंडी, पृ० १६८ । यहाँ कौओं को संसारी जीव, हस्ति के शरीर में उनके प्रवेश को मनुष्ययोनि का लाभ, अंदर रहते हुए मांस-भक्षण को विषयों की प्राप्ति, मार्गनिरोध को भवप्रतिबंध, जलप्रवाह के कारण शरीर वियोग को मरणकाल तथा कौओं के बाहर निकल आने को परभवसंक्रमण कहा गया है। हेमचन्द्र के परिशिष्टपर्व (२. ५. ३८०-४०५) में भी यह कथा आती है। तुलनीय लोहजंघ ब्राह्मण की कथा से। गीदड़ों द्वारा भीतर से खाई हुई हाथी की खाल में पैरों की तरफ से उसने प्रवेश किया । वर्षा के कारण हाथी की यह लाश बहती हुई समुद्र में पहुँच गई, साथ में लोहजंघ भी । कथासरित्सागर, ४. २. ११८-२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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