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________________ कोई मनचला कह बैठा-हम तो तब जाने जब कोई स्वयं उपार्जित किये हुए धन का दान करे, बाप-दादाओं के धन का दान तो कोई भी कर सकता है। कहा भी है-- “जो अपने भुजबल से अनेक दुःखों से कमाये हुए धन का दान करता है, वही प्रशंसा का पात्र है, बाकी सब चोर हैं" ! सागरदत्त सोचने लगा कि बात तो ठीक है। उसने प्रतिज्ञा की कि यदि वह एक वर्ष के भीतर सात करोड़ उपार्जन नहीं कर सका तो अग्नि में कूदकर प्राणों का अंत कर देगा। सागरदत्त ने दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। दक्षिण समुद्र तट पर अवस्थित जयश्री नामक महानगरी में उसने प्रवेश किया । वहाँ उसने एक वणिक् की दूकान पर नौकरी कर ली। तत्पश्चात् यानपात्र में श्वेत चन्दन और वस्त्र भरकर यवनद्वीप के लिए रवाना हुआ। समुद्रतट पर पहुँच अपना माल उतारा; सरकारी शुल्क दिया । वहाँ से दूसरा माल भरकर वापिस लौटा। हिसाब लगाया तो सात करोड़ से अधिक जमा हो गया था। सागरदत्त की प्रतिज्ञा पूरी हो गयी ! संयोगवश, जहाज वापिस लौट रहा था कि चारों दिशाएँ अंधकार से आच्छन्न हो गई और देखते-देखते मूसलाधार पानी बरसने लगा। माल के बोझ से भारी और वृष्टि के जल से भरा हुआ जहाज समुद्र में डूब गया ! सागरदत्त के हाथ में तेल का एक खाली कुप्पा लगा । उसके सहारेसहारे मगरमच्छों से अपनी रक्षा करता हुआ, वह पाँच रात और दिन की मुसाफिरी के बाद चंद्रद्वीप में उतरा !' लोभदेव की रत्नद्वीप यात्रा तक्षशिला के पश्चिम-दक्षिण में स्थित उच्चस्थल गांव में शूद्र जाति में उत्पन्न धनदेव नामक एक सार्थवाह का पुत्र रहता था । अत्यंत लोभी होने के कारण लोग उसे लोभदेव कहने लगे थे। एक बार लोभदेव ने घोड़े लेकर दक्षिणापथ में व्यापार के लिए जाने की अपने पिताजी से अनुमति माँगी । लोभदेव ने निवेदन किया-पिताजी ! मैं बहुत-सा धन कमाकर लाऊँगा और फिर सुख से जीवन बिताऊँगा। १. वही, पृ. १०३-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002634
Book TitlePrakrit Jain Katha Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1971
Total Pages210
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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