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________________ नारी एवं पुरुष के सौन्दर्य चित्रण में वंशस्थ छन्द का प्रयोग एवं अनुष्टुम् छन्द का प्रयोग किया है। युद्ध वर्णन में अधिकतर अनुष्टुप् छन्द का प्रयोग किया है । दो युद्ध-चित्र स्रग्धरा एवं शालिनी छन्दों में भी हैं । __ प्रकृति चित्रण भी अधिकतर अनुष्टुप् छन्द में ही है । इसके अतिरिक्त वसन्ततिलका, रथोद्धता व कुङ्मलदन्तीगाथा छन्द का भी उपयोग किया गया है । किसी भी सर्ग के अन्त में मालिनी छन्द का प्रयोग नहीं किया गया है । इस प्रकार हमने देखा कि क्षेमेन्द्र के अनुसार कवि पदमसुन्दर ने छन्दों की उपयुक्त योजना अपने काव्य में नहीं की है। इस काव्य में कुल १६ छन्द प्रयुक्त हैं । अपने काव्य में सभी सुप्रसिद्ध एवं प्रचलित छन्दों के प्रयोग के साथ ही कवि ने पाँच अप्रचलित या बहत ही कम प्रयोग में आने वाले छन्दों का भी प्रयोग किया है, वे हैं-कुङमलदन्तीगाथा, जलधरमालागाथा, मयूरसारिणी, तोटक व दोधक छन्द । वैसे इन पाँचों छन्दों का प्रयोग छळे सर्ग में मात्र एक एक श्लोकों की रचना में ही किया गया है । ___ इस सर्ग में प्रयुक्त दोधक व तोटक छन्दों का प्रयोग पार्श्व भगवान् के लिए कही गई मुक्तक सूक्तियों के लिये ही किया गया है, जो क्षेमेन्द्र के अनुसार उचित है । छन्दों का वर्गीकरण परिशिष्ट २ में किया गया है; पृष्ठ १३५ देखें । कवि के अलंकार कवि ने अपने इस महाकाव्य में, काव्य में रस के पारिपाक के लिए एवं काव्य का जगार करने के लिए शब्दालंकार एवं अर्थालंकार-दोनों ही प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है। अग्निपुराण के अनुसार "अर्थालंकाररहिता विधवेव सरस्वती"1 अर्थात जिस प्रकार अलंकार से विहीन विधवा स्त्री प्रतीत होती है, उसी प्रकार अलंकार (अर्थालंकार) से विहीन काव्यवागू प्रतीत होती है। इस काव्य में प्रयुक्त कुल अलंकारों की संख्या १८ है । कवि का शब्दालंकार पर विशेष प्रभुत्व प्रतीत होता है । शब्दालंकारों में भी अनुप्रास व यमक कवि को विशेष रूप से पसन्द प्रतीत होते हैं। कवि के अनुप्रास काव्य में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर हो जाते हैं, जो काव्य की शोभा को बढ़ाने में चार चाँद का काम करते हैं। अर्थालंकारों में कवि ने सर्वाधिक प्रयोग उपमा (कहीं कहीं मालोपमा), रूपक, उत्प्रेक्षा भावोक्ति, व्यतिरेक, अतिशयोक्ति व अर्थान्तरन्यास अलंकारों का किया है। इसके अतिरिक्त कुछ श्लोक इन अल कारों के भी हैं जिनका प्रयोग बहुत कम ही किया गया है। अतिवराण. श्रीमन्महर्षिवेदव्यासविरचित, गुरुमण्डल सीरीज, नं० १७, कलकत्ता, १९५७ - अध्याय ३४४ पृ० ७०३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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