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________________ ४८ स मातुरुदरे रेजे त्रिज्ञानज्योतिरुज्ज्वलः । स्फुटस्फटिक गेहान्तर्वर्तिरत्नप्रदीपवत् ॥ ३, ६४ ।। पार्श्व को देखने को आतुर नगर के जन एवं सुन्दरयों की त्वरापूर्ण चेष्टाओं का चित्रण - - कवि पद्मसुन्दरसूरि ने अपने महाकाव्य में पार्श्व को देखने को आतुर ललनाओं एवं नागरिकों का चित्रण परम्परागत रूप से प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार का चित्रण कवि अश्वघोष से लेकर नैषध तक के काव्यों में हमें दिखलाई देता है । सर्वप्रथम, अश्वघोष के बुद्धचरित के तीसरे सर्ग में वनविहार के लिए जाते राजकुमार गौतम को देखने को लालायित ललनाओं का वर्णन तृतीय सग के १२ से २४ तक के श्लोकों में पाया जाता है । दर्शनातुर ललनाओं के चित्रण की परम्परा अश्वघोष से ही शुरू हुई जान पड़ती है । इसके पश्चात् रघुवंश में अज को देखने के लिए उत्सुक पुरसुन्दरियों की चेष्टाओं का वर्णन सातवें सर्ग के ५ से १२ तक के श्लोकों में देखने को मिलता है । कुमारसंभव में शिवजी को दूल्हा रूप में देखने को आतुर पार्वती की सखियों का वर्णन सातवें सग के ५६ से ६१ तक के श्लोकों में प्राप्त होता है । माघ के शिशुपालवध में कृष्ण को देखने को आतुर पुरसुन्दरियों का चित्रण तेरहवें सर्ग के ३१ से ४८ तक के श्लोकों में देखा जा सकता है । श्रीहर्ष के नैषध में नल को देखने को आतुर दमयन्ती की सखियों का चित्रण सर्ग १५ के ७४ से ८३ तक के श्लोकों में देखा जा सकता है । इसी प्रकार का चित्रण जानकीहरण व रावणार्जुनीय आदि काव्यों में भी पाया जाता है । इसी प्रकार का चित्रण कवि पद्मसुन्दर ने अपने महाकाव्य के छढे सर्ग के ८ से १६ तक के श्लोकों में बहुत ही सुन्दरता के साथ किया है। 1 Jain Education International अष्टमतप के अन्त में, शरीर की स्थिति को बनाये रखने के लिए आवश्यक जान, जब पार्श्व भगवान् कूपकट नामक नगर में निर्दोष भोजन प्राप्ति के लिए गये तब पार्श्वभगवान् को देखने को उत्कण्ठित उस नगर के लोग चारों ओर से दौड़ते हुए, शोरगुल मचाते हुए, अपने शुरू किये हुए कार्यों को मध्य से ही छोड़ कर हदबड़ाहट में दौड़ने लगे । प्रत्येक नागरिक पाश्व के दर्शन जल्दी से जल्दी कर लेना चाहता था । इसी स्पर्धा में, मै पहला हूँ, में पहला हूँ की पुकार लगी हुई थी । कोई नागरिक अपनी पूजा का ही छोड़ कर आ पहुँचा था, कोई कौतूहलवश आया था और अन्य कोई दूसरों की देखादेखी करके आ पहुँचा था केsपि पूजां वितन्वन्तः पौराः कौतुकिनः परे । गतानुगतिकाश्चान्ये पार्श्व द्रष्टुमुपागमन् ॥ ६, १६ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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