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________________ कमठ ( प्रतिनायक ) - कमठ इस महाकाव्य का प्रतिनायक है । वह इस महाकाव्य के नायक के प्रथम भव का बढ़। भाई है। वह विद्वान् है । राजा अरविन्द का मन्त्री भी रह चुका है। पर अपने विलासी और दुराचारी व्यवहार के कारण उसे राजा द्वारा देश से निष्कासन प्राप्त होता है । विद्वान होने के सिवा उसमें कोई भी ऐसा गुण नहीं है जो पाठक को अपनी और आकर्षित कर सके । द्वेष की भावना, प्रतिशोध की भावना, उसका अत्यन्त क्रोधी स्वभाव, उसकी अक्षमाशीलता, उसका अविवेक, उसका अज्ञान -बस इन्हीं सभी अवगुणों के दर्शन हमें सम्पूर्ण काव्य में दृष्टिगोचर होते हैं । और इन्हीं सभी अवगुणों के फलस्वरूप उसे अपने प्रत्येक भव में घोर यातनाओं का सामना करना पड़ता है । परिणामस्वरूप निम्न से निम्नकोटि में उसका जन्म होता चलता है । अपने प्रथम भव में वह एक विद्वान् ब्राह्मण का बेटा है । स्वयं भी सभी प्रकार के शास्त्र. दर्शन तथा विद्याओं में पारंगत है तथा राज्य मन्त्री भी है । पर अपने दुष्कर्मो की वजह से एवं अज्ञान की वजह से वह अपने छोटे भाई मरुभूति को क्षमा मांगने पर क्षमा ना कर उसके प्राण ले लेता है। द्वितीय भव में वह कक्कुट नामक सर्प की योनि में जन्म लेता है। वहाँ भी अपने छोटे भाई को हाथी के रूप में देख, पूर्ववैर को याद कर पुन: उसे डस, उसके प्राण ले लेता है। तृतीय भव में वह पंचम नरक में पैदा होता है । चतुर्थ भव में वह हिमगिरि नामक पर्वत पर विषघर बनता है और वहाँ भी किरणवेग नामक राजकुमार के रूप में अपने प्रथम भव के 'भाई मरुभूति को तपस्या करते देख उसे काट लेता है और उसके प्राणघात के पाप से पुनः अपने कर्मो के बन्धन को भारी बनाता है । पाँचवे जन्म में वह पंचम नरक में दन्दूशूरु नानक जीव बनता है तथा नरक की यातनाओं को भोगता है। छले जन्म में वह ज्वलनपर्वत पर भीमा नामक जंगल में वनेचर का जन्म लेता है और वज्रनाभ नामक राजकुमार के रूप में मरुभूति को पहचान, उसे अपने बाण से बाँध कर मार डालता है । सातवें भब में उसका जन्म तमस्तमा नामक नरक में होता है। अपने आठवें भव में वह क्षीरमहापर्वत पर सिंह बनता है और कनकप्रभ राजकुमार के रूप में तपस्या करते अपने भाई मरुभूति को देख उसे गर्दन- से पकड़ मार डालता है । नवे भव में वह कमठ नामक तापस बनता है और अपने अन्तिम दसवें भव में वह मेघमाली नामक भवनवासी अधम देव या राक्षस बनता है। कमठ के चरित्र के विकास के दो-तीन ही अवसर इस महाकाव्य में आए हैं-एक प्रथम भव में और दूसरे नवे एवं दसवें भव में । बाकी के भवों में से तीन भवों में ( तीसरे, पांचवें व सातवें ) वह विभिन्न नरकों की यातनाएँ भुगतता है । अन्य चार भवों (दूसरे, चौथे, छठे व आठवें ) में उसका काम मात्र मरुभूति के अनेक जन्मों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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