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________________ ९८ नादसुत्त' (पृष्ठ ४८-५०) में अपने प्रारम्भिक तपस्वी जीवन का वर्णन करते हुए तपस्विता, रुक्षता, जुगुप्सा और प्रविविक्तता आदि पार्श्वनाथ के चार्तुयाम धर्म में विद्यमान चारों तपों पर प्रकाश डाला है । आचार्य देवसेन रचित दर्शनसार (वि० सं० ९९०) में यह भी लिखा है कि बुद्ध ने एक पाश्र्वापत्यमुनि पिहितास्रव से दीक्षा ली थी एव शिष्यत्व के समय उनका नाम बुद्धकीर्ति था । एक बार मछलियों का आहार स्वीकार करने के पश्चात वे धर्म-भ्रष्ट हए थे और तब उन्हों ने रक्ताम्बर धारण कर अपने एक अलग मत की स्थापना की थी । बौद्धों के त्रिपिटकों में अनेक स्थानों पर निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के विषय में उल्लेख प्राप्त होते हैं । उन उल्लेखों में से एक स्थान पर 'अगुंत्तर निकाय' में यह लिखा मिलता है कि वप्प नामक एक शाक्य था जो निग्रन्थों का श्रावक था और वहीं यह भी लिखा हुआ है कि यही वप्प बुद्ध भगवान का चाचा था 12 कदाचित् बुद्ध के माता-पिता भी पाचनाथ के धर्मानुयायी हों। गौतम बुद्ध के जन्म से पूर्व अन्यथा उनके बाल्यकाल में ही निर्मन्थों का धर्म शाक्य देश में प्रचलित था । महावीर स्वामी भगवान बुद्ध के समकालीन थे अतए व यही माना जायेगा कि यह धर्मप्रचार उनके पूर्व के निर्मन्थों द्वारा किया गया था, जिनके प्रमुख भगवान पार्श्व थे। मज्झिमनिकाय के एक संवादानुसार सच्चक नामक एक प्रसिद्धवादी का वहाँ वर्णन है जो स्वयं निर्घन्य धर्म का अनुयायी नहीं था परन्तु क्योंकि उसके पिता एक निन्थ साध थे अतः वह यह गर्वोक्ति किया करता था कि उसने भगवान महावीर को विवाद में परास्त किया है। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि यदि निर्ग्रन्थ धर्म बुद्ध अथवा महावीर के समय से ही प्रचलित होता तो अवश्य ही सच्चक जो कि बुद्ध और महावीर को समकालीन था उसके पिता निर्ग्रन्थ धर्म के अनुयायी नहीं होने चाहिये थे । अतः यही जान पड़ता है कि निम्रन्थ धर्म बुद्ध और महावीर के समय से पूर्व ही विद्यमान था । 1. तीर्थकर पार्श्वनाथ भक्तिंगङ्गा, सं. डॉ. प्रेमसागर जैन, वाराणसी, १९६९, पृ. ९ 2. एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति कपिलवत्थुम्मिं । __ अथ खा वप्पो सक्को निगण्ठ सावको इ।" -(अंगुत्तर, चतुक्कनिपात, चतुत्थपण्यासक, पांचवा वग्ग ) "वप्पाति दसबलस्सचुल्लपिता ।" - (अंगुत्तर अट्ठकथा, सयाम संस्करण । ४७४) 3. पार्श्वनाथ का चातु याम धर्म, धर्मानन्द कोसंबी, बम्बई, १९५७, पृ. १४ । 4. देखिए-भगवान पार्श्व, श्री देवेन्द्रमुनिशास्त्री, पूना, १९६९, पृ. ६५-६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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