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________________ २८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :३ मनुष्य-योनि, मनुष्य-जीवन प्राप्त होना कठिन है-दुर्लभ है। मनुष्य-जन्म प्राप्त हो जाने पर सद्धर्म का श्रवण-सुनने का अवसर प्राप्त होना दुर्लभ है। बुद्धों का परम प्रबुद्ध-परम ज्ञानी पुरुषों का उद्भव दुर्लभ है।' जम्बूखादक परिव्राजक ने सारिपुत्त से पूछा--"आयुष्मान् सारिपुत्त ! इस धर्मविनय में-धर्माचरण-धर्मसाधना के क्रम में क्या दुष्कर है-किस कार्य का करना दुष्कर है—कठिन है ?" सारिपुत्त ने कहा--"आयुष्मन् धर्म-विनय में-श्रमण-जीवन में, संयम में प्रवजित होना दुष्कर है।" इस पर परिव्राजक ने फिर प्रश्न किया-आयुष्मन् ! प्रव्रज्या स्वीकार कर लेने के पश्चात्-प्रवजित जीवन में क्या दुष्कर है—क्या करना दुःसाध्य है ?" सारिपुत्त ने कहा-'आयुष्मन् ! प्रव्रज्या स्वीकार कर श्रमण-जीवन में अपना मन रमाये रहना, तन्मय रहना कठिन है, अभ्यास-साध्य है।" परिव्राजक ने पुनः प्रश्न किया—यदि श्रमण-जीवन में मन लगा रहे तो फिर वह कौनसा कार्य है, जिसे साध पाना कठिन है ?" सारिपुत्त ने उत्तर दिया- “यदि श्रमण-जीवन में-धर्माराधना में, साधना में मन लगा रहे तो फिर धर्म-सिद्धान्तों के अनुरूप आचरण करना-चलते रहना दुष्कर है। पदिव्राजक ने अन्त में पूछा- “धर्म-सिद्धान्तों के अनुरूप आचरण करने में यथावत् रूप से लग जाने में फिर अर्हत् होने में कितना समय लगता है ?" सारिपुत्त ने कहा-"आयुष्मन् ! वस्तुतः वैसा हो जाने पर कुछ समय नहीं लगता।" श्रद्धा का सम्बल सत्य को उपलब्ध करने में यद्यपि तर्क एवं युक्ति की अपनी उपयोगिता है, किन्तु, सत्य की गवेषणा में ज्यों-ज्यों व्यक्ति आगे बढ़ता है, एक स्थिति आती है, जहाँ प्रतीयमान सत्य को अनुभूति के साँचे में ढालना पड़ता है, वहाँ तर्क की यात्रा परिसमाप्त हो जाती है तथा श्रद्धा या विश्वास उसका स्थान ले लेता है, जिसके बिना अनवरत चलती तर्क की यात्रा केवल बौद्धिक व्यायाम रह जाती है। उससे जीवन का साध्य कभी सध नहीं पाता । मात्र वाग्विलास या बुद्धि-विलास से जीवन का निर्माण नहीं होता, साधना अधिगत नहीं होती। श्रद्धा एक ऐसा अन्तविश्राम है, जिसका अवलम्बन लिये मनुष्य निश्चय ही शान्ति का अनुभव करता है। इसमें बड़े महत्त्व की बात यह है, तर्क, चिन्तन या विमर्श का परिपाक यदि श्रद्धा में प्रस्फुटित न हो तो चरण, करण या क्रियान्वयन की भूमिका प्राप्त ही नहीं होती, जिसके बिना जीवन का लक्ष्य कमी सध नहीं पाता। अतएव साधना, जो कर्म या अभ्यास में तन्मय होने से फलती है, सदैव अनायत्त रहती है। केवल जीवन में १. किच्छो मनुस्स-पटिलाभो, किच्छं मच्चानं जीवितं । किच्छं सद्धम सवणं, किच्छो बुद्धानं उप्पादो। -धम्मपद १४.४ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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