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________________ २० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३. हित करने वाला तथा उन पर अनुकम्पा करने वाला होता है । यह पहले प्रकार का कायिक धर्माचरण है। “वह अदिन्नादान-अदत्तादान का चोरी का परित्याग करता है, बिना दिये दूसरे की कोई वस्तु नहीं लेता, ग्राम में या वन में रखा किसी का धन, सामान नहीं लेता, चोरी नहीं करता। यह दूसरे प्रकार का कायिक धर्माचरण है। "वह काम मिथ्याचार से-व्यभिचार से विरत होता है, उन स्त्रियों के साथ कामसेवन नहीं करता, जो माता के संरक्षण में हैं, उन स्त्रियों के साथ काम-सेवन नहीं करता, जो पिता के संरक्षण में हैं, उन स्त्रियों के साथ काम-सेवन नहीं करता, जो माता-पिता के संरक्षण में हैं, उन स्त्रियों के साथ काम-सेवन नहीं करता, जो जातीय जनों के संरक्षण मे हैं, उन स्त्रियों के साथ काम-सेवन नहीं करता, जो बहिन के संरक्षण में हैं, उन स्त्रियों के साथ काम-सेवन नहीं करता जो गोत्रीयजनों के संरक्षण में हैं, उन स्त्रियों के साथ सेवन नहीं करता, जो धर्म के संरक्षण में हैं, उन स्त्रियों के साथ काम-सेवन नहीं पतियुक्त हैं, विवाहित हैं। यह तीसरे प्रकार का कायिक धर्माचरण है। ____ "गृहपतियो ! वाचिक धर्माचरण चार प्रकार का होता है--कोई पुरुष मृषावाद से--असत्य-भाषण से विरत होता है। वह सभा में, परिषद् में, जातीयजनों में, पंचायत में, राजा के दरबार में, न्यायालय में जान-बूझकर असत्य-भाषण नहीं करता। यह पहले प्रकार का वाचिक धर्माचरण है। "वह पिशुन-वचन से---चुगली से विरत होता है। लोगों में फूट नहीं डालता। जिनमें फूट पड़ी है, वैमनस्य है, उन्हें मिलाता है। जिनमें मेलजोल है, उसे बढ़ाने में सहयोगी होता है। विभिन्न लोगों में परस्पर मेल कराने में रत-संलग्न रहता है। ऐसा करने में वह आनंद अनभव करता है। वह ऐसी वाणी बोलता है, जिससे मेलजोल के सूत्र जुड़ते हैं। यह दूसरे प्रकार का वाचिक धर्माचरण है। "वह पुरुष वचन से--कठोर वचन से विरत होता है। वह ऐसी वाणी बोलता है, जो मधुर-मीठी, कर्ण-प्रिय-कानों को प्रिय लगनेवाली, सुखप्रद, प्रेमणीय-प्रेम उत्पन्न करने वाली, हृदयंगम, मन को लुभाने वाली, सम्य-सभ्यतायुक्त, शिष्टतापूर्ण बहुजन कान्तबहुत लोगों को कान्त-कमनीय, सुन्दर लगने वाली, बहुजन मनाष-बहुत लोगों के मन को भानेवाली होती है । यह तीसरे प्रकार का वाचिक धर्माचरण है। "वह प्रलाप से विरत होता है। समय देखकर बोलता है। यथार्थ, सत्ययुक्त बात कहता है, धर्मयुक्त, नीतियुक्त वाणी बोलता है, उद्देश्ययुक्त, तात्पर्ययुक्त तथा सारयुक्त माणी बोलता है । यह चौथे प्रकार का वाचिक धर्माचरण है। "गहपतियो ! मानसिक धर्माचरण तीन प्रकार का होता है-कोई पुरुष अभिध्यारहित-लोभरहित होता है। दूसरे के धन, सामान आदि के प्रति लोभ नहीं रखता। दूसरे का बन, दूसरे के उपकरण मेरे होते, ऐसी भावना नहीं रखता। यह पहले प्रकार का मानसिक धर्माचरण है। "बह भन्यापन्न-चित्त-द्वेषहीन संकल्पयुक्त होता है। सभी प्राणी व्यापात-द्रोह या द्रोह रहित, वैमनस्य रहित हों, प्रसन्न हों, सुखी हों, ऐसी भावना रखता है। यह दूसरे ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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