SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 697
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग---सिंह और शशक : निग्रोध मृग जातक ६३७ आया। खरगोश सिंह से बोला-"राजन् ! वह दूसरा सिंह इसी स्थान पर रहता है। आप कुएं की चाठ पर बैठकर दहाड़िए। आपकी दहाड़ सुनकर वह भी दहाड़ेगा।" सिंह ने मन-ही-मन कल्पना की, वह मुझ से डर गया है, निश्चय ही वह कुएं में चला गया है। उसने गर्जना की। कुएं में उसकी आवाज की प्रतिध्वनि हुई। उसने प्रतिगर्जना सुनी। कुएं के भीतर झांका तो उसे अपनी परछाई दिखाई दी। उसने सोचा . यही वह दूसरा सिंह है, जिसने खरगोश को यहाँ आने से रोका था । वह उस पर आक्रमण करने के लिए कुएं में कूद पड़ा और अपनी जान गंवा दी.' निग्रोध मग जातक सन्दर्भ-काया राजगृह में एक अत्यधिक संपत्तिशाली सेठ था। उसके एक कन्या थी। उस कन्या के विचार बड़े स्वच्छ एवं पवित्र थे। उसके संस्कार अति परिष्कृत तथा उत्तम थे। वह अन्तिम शरीरा थी-वर्तमान-जीवन में प्राप्त शरीर के अनन्तर निर्वाण प्राप्त करने के संस्कार लिये थी। उसके मन में मोक्ष प्राप्त करने की भावना उसी प्रकार प्रज्वलित हुई, जैसे घट में दीपक प्रज्वलित होता है -घट के भीतर प्रज्वलित दीपक से जिस प्रकार घटाकाश में प्रकाश परिव्याप्त हो जाता है, उसी प्रकार उसके मन में मुमुक्षु भाव व्याप्त हो गया। ज्यों-ज्यों वह बड़ी हुई, उसका मन संसार से ऊबने लगा। उसके मन में प्रव्रजित होने का भाव जागा । उसने एक दिन अपने मां-बाप से कहा- "माता-पिता! घर में मेरा मन नहीं लगता। मैं बुद्ध निरूपति धर्म में प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहती हूँ, जो मोक्ष की ओर ले जाने वाला (सन्मार्ग) है। आप मुझे प्रव्रज्या दिलवाएं।" माता-पिता ने कहा-"अरी ! क्या बोलती हो ? यह वैभव-संपन्न कुल, तू हमारी इकलौती बेटी, हम तुम्हें प्रवजित नहीं होने देंगे।" श्रेष्ठि-कन्या ने अपने माता-पिता से बार-बार प्रार्थना की, पर, उसे उनकी स्वीकृति प्राप्त नहीं हो सकी। कन्या सोचने लगी-माता-पिता आज्ञा नहीं दे रहे हैं। खैर, मैं विवाहित हूंगी, ससुराल जाने पर अपने पति को मुझे प्रव्रज्या दिलाने हेतु सहमत करूंगी। कन्या जब सवयस्क हुई, उसके माता-पिता ने उसका विवाह कर दिया । वह पति के घर चली गई। पति को देवता मानती। शील तथा सदाचार पूर्वक वह गृहस्थ में रहने लगी। पति के सहवास से उसके गर्भ रहा, किन्तु, उसे गर्भ रहने का पता नहीं चला। तभी की बात है, नगर में एक विशेष उत्सव मनाये जाने की घोषणा हुई। सभी नगरवासी उत्सव मनाने में लग गये। देवताओं के नगर की ज्यों वह नगर सजा था, किन्तु, उस स्त्री ने ऐसे वृहत् उत्सव के समय भी न अपने शरीर पर चन्दन, केसर आदि सुगंधित पदार्थों का लेप ही किया, न उसे अलंकारों से सजाया ही। वह अपने सहज वेश में ही पर्यटन करती रही। उसके पति ने उससे पूछा-"भद्रे ! सभी नगरवासी उल्लास के साथ उत्सव मना रहे हैं, तू अपने को सुसज्जित एतं अलंकृत नहीं कर रही है, क्या कारण है ?" १. आधार-व्यवहार भाष्य ३.२६-३० तथा वृत्ति पृष्ठ ७ अ. ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy