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________________ ५४४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड: ३ वासुदेव कृष्ण कुछ और कहना चाहते थे, इतने में बलराम ने उन्हें रोकते हुए कहावासुदेव ! क्या तुम सर्वज्ञ, सर्वदर्शी भगवान् अरिष्टनेमि की भविष्य-वाणी को अयथार्थ सिद्ध करना चाहते हो? ऐसा तीन काल में न कभी हुआ है, न कभी होगा।" भावी के समक्ष वासुदेव कृष्ण ने अपना मस्तक झुका दिया। भारी मन लिये वहाँ से चले आये। अग्निकुमार देव के रूप में जन्म द्वैपायन तपस्वी मर गया। उसने अग्निकुमार देवो में जन्म लिया । अपने पूर्व-जन्म के शत्र-भाव का स्मरण कर वह शीघ्र द्वारिका आया। द्वारिका के नागरिक बेले, तेले आदि की तपस्याओं तथा धार्मिक क्रियाओं में निरत थे। एसी स्थिति में वह देव उनका कुछ बिगाड नहीं सका । अनुकूल अवसर की खोज में वह ग्यारह वर्ष तक इन्तजार करता रहा। उधर द्वारिका में नागरिकों की धार्मिक प्रवृतियाँ शिथिल होने लगीं। खाद्य, अखाद्य का भेद जाता रहा । वे सब कुछ खाने-पीने लगे। उन्हें ऐसा विश्वास हो गया कि द्वैपायन अब उनका कुछ भी बुरा-बिगाड़ नही कर सकता। वे आमोद-प्रमोद, भोग-विलास मदिरापान, मांस-भक्षण आदि के शिकार हो गये। द्वारिका-दहन अग्निकुमार द्वैपायन इसी अवसर की फिराक में था। उसने उपद्रव शुरू किया। संवर्तक वायु बहाया, जिसे लड़कियाँ, घास, तृण आदि जलावन द्वारिका में पूंजीभत हो गया। उसने अंगारे बरसाये । द्वारिका जलने लगी। श्रीकृष्ण के सभी दिव्य अस्त्र, शस्त्र, वस्त्र आदि दग्ध हो गये। नगरवासी नगर से बाहर भाग निकलने का प्रयास करते तो वह अग्निकुमार द्वैपायन देव उन्हें उठाकर अग्नि में फेंक देता । सारे नगर में त्राहि-त्राहि की दुःखद ध्वनि परि व्याप्त हो गई। इस भीषण अग्निकांड में श्रीकृष्ण अपने माता-पिता को नहीं भूल सके। उन्होंने अपने पिता वासुदेव, माता देवकी एवं रोहिणी को रथ में बिठाया और अपने अग्रज बलराम के साथ चल पड़े। रथ में जुते घोड़े कुछ ही दूर चले कि द्वैपायन देव ने उन्हें स्तम्भित कर दिया। वे जडवत् हो गये। तब कृष्ण और बलराम-दोनों स्वयं रथ में जुत गये । येन-केन-प्रकारेण नगर के द्वार तक रथ को खीच लाये । इतने में रथ भग्न हो गया। आग की लपटों के भीषण ताप से संतप्त माता-पिता कराहते हुए पुकार करने लगे-"पुत्र कृष्ण ! पुत्र बलराम ! हमें बचाओ, हमारी रक्षा करो।" यह हृदय-द्रावक आर्तनाद हो ही रहा था कि इतने में नगर का द्वार बन्द हो गया । बलराम आगे बढ़े । द्वार पर अपने पैर से प्रहार किया। द्वार टूट गया। वे अपने माता-पिता को लेने दौड़े। इतने में द्वैपायन देव प्रकट हुआ। उसने कहा-'कृष्ण ! बलराम ! तुम्हारा सारा प्रयत्न निरर्थक है। मैं वही पूर्व-जन्म का द्वैपायन तपस्वी हूँ। केवल तुम दो ही यहाँ से जिन्दे निकल सकते हो, और सबको इस आग में जलना ही होगा। इस निमित्त तो मैंने अपने जीवन-भर के तप का सौदा किया, तप को बेचा, ग्यारह वर्ष तक इन्तजार किया। दोनों भाइयों ने द्वैपायन देव की बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया, और प्रयत्न करने ही को थे कि वसुदेव, देवकी तथा रोहिणी ने सम्मिलित रूप में अपने दोनों पुत्रों से कहा "पुत्रो ! अब तुम यहां मत रुको, चले जाओ। यदि तुम दोनों जिन्दे रहोगे तो सारा ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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