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________________ ५४२ आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन अपना भविष्य सुनकर बलराम भी सन्तुष्ट हुए । जयकुमार को विषाद : द्वारिका का परित्याग जयकुमार के हाथों वासुदेव कृष्ण की मृत्यु होगी, यह बड़ी अप्रिय बात थी । यादवों को इससे बड़ा दुःख हुआ । यद्यपि जयकुमार का कोई दोष नहीं था, पर, यह सोचकर कि उसके हाथ से ऐसा निन्द्य कर्म होगा, सब उसे नीची दृष्टि से देखने लगे । जयकुमार का मन भी बड़ा विषण्ण था । वह सोचने लगा — मेरे हाथ से बड़े भाई का वध - कितना घोर पापपूर्ण अपराध, दुष्कृत्य यह होगा । मुझे चाहिए, मैं द्वारिका का परित्याग कर कहीं इतना दूर चला जाऊं कि फिर कभी यहाँ आने का प्रसंग ही न बने। इस प्रकार मैं इस पापकृत्य से बचने का प्रयास करूँ । उसने अपना धनुष उठाया, बाणपूर्ण तूणीर लिया और वह दक्षिणा की ओर निकल पड़ा । मदिरा पान को निषेधाज्ञा खण्ड : ३ वासुदेव कृष्ण धर्म-परिषद् से उठे, नगर में आये और यह आदेश घोषित करवाया कि अब से द्वारिका में कोई मदिरा-पान न करे । राजा के आदेश के कारण समग्र लोगों ने, जो भी मदिरा उनके पास थी, कदंब वन की कादंबरी नामक गुफा में नैसर्गिक शिला-कुंडों में फेंक दी । नगर सर्वत्र सुरापान बन्द हो गया। लोग शुभ सात्त्विक, धर्ममय जीवन व्यतीत करने लगे । द्वैपायन ने श्रुति-परम्परा से भगवान् औरष्टनेमि द्वारा की गई भविष्य वाणी सुनी तो वह द्वारिका की रक्षा भावना लिये वहाँ आया तथा द्वारिका के बाहर रहता हुआ तपश्चरण करने लगा । सारथि सिद्धार्थ द्वारा प्रव्रज्या बलराम के सिद्धार्थ नामक सारथि था । भगवान् अरिष्टनेमि के धर्मोपदेश से वह प्रभावित हुआ । उसे संसार से वैराग्य हुआ । उसमें श्रमण-दीक्षा ग्रहण करने की भावना जागी । उसने अपने स्वामी बलराम से इसके लिए आज्ञा चाही । बलराम ने उसका अनुरोध स्वीकार करते हुए कहा - "तुम केवल मेरे सारथि ही नहीं हो, भाई के तुल्य हो । प्रव्रज्या ग्रहण करना एक अत्यन्त उच्च कार्य है । मैं तुम्हें वैसा करते नहीं रोकूँगा । पर, एक अनुरोध स्वीकार करो, मुझे वचन दो, तुम जब देवयोनि प्राप्त कर लो, मैं कदाचित् पथ-भ्रष्ट होने लगूं तो तुम भाई के समान मुझे सम्भालना, मुझे प्रतिबद्ध करना । Jain Education International 2010_05 सारथि सिद्धार्थ ने अपने स्वामी बलराम की आज्ञा सहर्ष शिरोधार्य की । वह प्रव्रजित हो गया । छः मास तक तपश्चरण किया । स्वर्गवासी हुआ । कादंबरी गुफा की मदिरा मदिरा, जो कदंब वन की कादंबरी गुफा के नैसर्गिक शिला-कुंडों में फेंकी गई थी, और भी मादक तथा सुस्वादु हो गई । एक बार की बात है, बैशाख का महीना था । यादवकुमारों के किसी एक सेवक ने, जो पिपासाकुल था, उसे पीलिया । मदिरा का अद्भुत स्वाद था, उन्मादक नशा था। उसने एक पात्र उस मंदिरा से भर लिया। यादव कुमारों के पास लाया । उन्होंने उसे पीया । मदिरा की मादकता तथा स्वादिष्टता से वे विमुग्ध हो गये । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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