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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग–रामचरित : दशरथ जातक ४३७ कि मैं कुंडलपुर का वासी विजय नामक वणिक् हूँ। मेरे माता-पिता श्रमणोपासक हैं। मैं व्यापारार्थ उज्जैनी आया। प्रचुर धन अजित किया, पर, मैं अनंगलता नामक वेश्या पर आसक्त हो गया। इस दुर्व्यसन में मैंने अपना सारा धन नष्ट कर दिया। एक दिन में वेश्या के कहने से अवन्ती-नरेश की रानी के कुंडल चुराने उसके महल में गया। राजरानी के शयन-कक्ष में पहुँचा । एक ओर छिपकर खड़ा हो गया । मैं इस प्रतीक्षा में था कि ज्योंही राजा सो जाये, मैं रानी के कुंडल निकाल लूं, पर, राजा बड़ी चिन्ता-मग्न था। उसको नींद नहीं आती थी। रानी ने उसे नींद न आने का कारण पूछा। राजा बोला-"दशपुर के राजा वज्रजंघ मुझे नमस्कार नहीं करता, मैं उसका वध करूंगा; अतः मैं दशपुर पर आक्रमण करने के सम्बन्ध में मन-ही-मन सोच विचार कर रहा हूँ।" जब मैंने यह सुना, मेरे मन में आया-मुझे अपने एक साधर्मिक बन्धु को सूचना देकर सावधान कर उपकृत करना चाहिए। तदनुसार मैं यह गोपनीय समाचार लेकर आया हूँ। अब आप अपनी रक्षा का, जैसा उचित समझे, उपाय करें। वज्रजंघ ने विजय के प्रति अपना आभार प्रकट किया। राजा वज्रजंघ ने अपने राज्य के नगर खाली करवाये। प्रजाजनों को राजधानी में बुलवा लिया। राजधानी में अन्न-जल का प्रचुर संचय किया, सब प्रकार की अपेक्षित सामग्री संग्रहीत की और उसके द्वार बन्द कर लिये। अवन्ती-नरेश सीहोदर अपनी सेना के साथ वहां पहुँचा, नगर को चारों ओर से घेर लिया। सीहोदर ने वज्रबंध के पास अपना दूत भेजा, उस द्वारा कहलवाया--"तुम मुझे प्रणाम करो, तुम्हारे साथ मेरा अर कोई झगड़ा नहीं है। ऐसा करना स्वीकार हो तो यह राज्य तुम्हारा है, तुम भोगो।" वज्रजघ ने दूत द्वारा सीहोदर को अपना उत्तर भेजा--"मैं किसी भी कीमत पर अपना नियम नहीं तोड सकता। दोनों राजा अपनी अपनी बात पर अड़े बैठे हैं। एक भीतर बैठा है और एक बाहर बैठा है । यह नगर इस संघर्ष के कारण अभी-अभी सूना हो गया है।" यह कहकर पथिक वहाँ से जाने को उद्यत हुआ। राम ने कमर से उतारकर अपनी करधनी उमे पुरस्कार में दी। राम और लक्ष्मण ने सोचा-राजा वज्रजंघ हमारा सार्मिक भाई है । हमें उसकी सहायता करनी चाहिए। यों सोच कर वे वहाँ गये। राजधानी के बाहर ठहरे। राम की आज्ञा से लक्ष्मण नगर के भीतर गया, राजा वज्रजंघ से मिला, वार्तालाप किया। राजा ने लक्ष्मण को भोजन करने का अनुरोध किया। लक्ष्मण ने कहा--"मेरे बड़े भाई नगर के बाहर हैं । मैं यहाँ भोजन नहीं कर सकता।" राजा ने लक्ष्मण के साथ भोजन भेजा। लक्ष्मण वापस राम और सीता के पास आया। सबने भोजन किया। तत्पश्चात लक्ष्मण सीहोदर के पास गया, जो नगर के घेरा डाले पड़ा था। लक्ष्मण ने सीहोदर से कहा -“मैं अयोध्या के राजा भरत का भेजा हुआ दूत हूँ। तुमने अन्यायपूर्वक यहाँ घेरा डाल रखा है । राजा भरत की आज्ञा है, तुम विरोध छोड़ दो, यहाँ से घेरा हटा दो, नहीं तो विनष्ट हो जाओगे।" यह सुनकर सीहोदर क्रोधित हो गया। उसने अपने योद्धाओं को लक्ष्मण पर हमला करने का संकेत किया। युद्ध छिड़ गया। अकेले लक्ष्मण ने सीहोदर की सेना को पराजित कर दिया। सीहोदर को बांध लिया। उसे राम के समक्ष उपस्थित किया। राम ने अवन्ती का आधा राज्य वनजंघको ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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