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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-राजा इषुकार : हत्थिपाल जातक ३६३ भोगों से क्या प्रयोजन है। हम संयमोचित गुणधारक, अप्रतिबन्ध-विहरणशील श्रमण बनेंगे।" पुरोहित बोला-"पुत्रो जैसे अरणी में अग्नि दिखाई नहीं देती, दूध में घृत दिखाई नहीं देता, तिल में तैल दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार शरीर में जीव दिखाई नहीं देता। वह शरीर में स्वतः उत्पन्न होता है और शरीर के मिटते ही मिट जाता है । आत्मा तथा शरीर भिन्न नहीं हैं। दोनों एक ही हैं।" यह सुनकर कुमार बोले-"पितृवर ! यह आत्मा अमूर्त है; इसलिए यह इन्द्रियग्राह्य नहीं है, नित्य है । ज्ञानी जन बतलाते हैं कि मिथ्यात्व आदि आत्मा के बन्धन के कारण हैं । बन्धन ही संसार का आवागमन का-जन्म-मरण का हेतु है । अब तक हम मोह के कारण तथा धर्म का ज्ञान न होने के कारण आपके रोकने पर रुके रहे और पापपूर्ण कर्म करते रहे, पर, अब हम वैसा नहीं करेंगे। यह जगत् सब प्रकार से अभ्याहत है-पीड़ित है, आवृत है-घिरा हुआ है। अमोध शस्त्र-धाराएँ इस पर पड़ती जाती हैं; अत: हमें गृह-वास में सुखानुभूति नहीं होती" पिता ने कहा- मैं जानने को चिन्तातुर हूँ, बतलाओ-यह लोक किससे अभ्याहत है, किससे आवृत है ? इस पर कौन-सी शास्त्र-धाराएँ गिर रही हैं ?" कुमार बोले-“यह लोक मृत्यु से अभ्याहत है, वृद्धावस्था से परिवृत है, रात-दिन रूपी अमोघ-अनिष्फल शास्त्र-धाराएँ इस पर गिर रही हैं व्यतीत होते प्रत्येक दिन-रात आयुष्य क्षीण हो रहा है। पितु चरण ! इसे समझिए । जो रातें बीत जाती हैं. वे में लौटतीं। जो पाप-कर्म करते रहते हैं, उनकी रातें निष्फल जाती हैं-उनका समय व्यर्थ व्यतीत होता है। जो धर्म-कार्य करते हैं, उनकी रातें सफल होती हैं-उनका समय सार्थक व्यतीत होता है।" पिताने कहा-'अच्छा, तुम लोगों का कथन ठीक है, पर, पहले अपन लोग सम्यक्त्व स्वीकार कर श्रावक-धर्म का पालन करते हए गहस्थ में ही रहें। तत्पश्चात दीक्षित होकर भिन्न-भिन्न कुलों में भिक्षाचर्या द्वारा जीवन-निर्वाह करते हुए विचरण करें।" कुमारों ने कहा-"जिसका मृत्यु के साथ सख्य हो—जिसकी मौत से मित्रता हो, जो भाग कर मृत्यु से बचने की शक्ति रखता हो, जो यह समझता हो कि मैं कभी नहीं मरूंगा, वही पुरुष-अमुक कार्य मैं कल करूंगा, एसी कांक्षा-इच्छा कर सकता है।" पिता भृगु पुरोहित को भी वैराग्य “देखिए, संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो आत्मा को पहले कभी उपलब्ध नहीं हुई हो; इसलिए राग का, आसक्ति का परित्याग कर हम आज ही श्रद्धापूर्वक श्रमणधर्म स्वीकार करेंगे, जिससे हमें पुनः आवागमन के चक्र में आना न पड़े।" यह सुनकर पुरोहित ने अपनी पत्नी से कहा-“वाशिष्ठि ! वृक्ष शाखाओं से सुशोभित होता है। शाखाओं के छिन्न हो जाने पर-कट जाने पर वह स्थाणु-ठूठ हो जाता है, उसी प्रकार पुत्रों के न रहने पर गृहस्थ में रहना मेरे लिए निरर्थक है; अतः मेरे लिए भी यह समय भिक्षु बनने का है। "जिस प्रकार पंखों के बिना पक्षी होता है, युद्धभूमि में सैनिकों के बिना राजा होता ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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