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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २७५ देवी ने राजा को इस प्रकार धमकाया और कहा-"अग्नि की आवश्यकता होने पर कोई जुगन को लाए तथा दूध की आवश्यकता होने पर किसी पशु के सींग को दूहे, क्या यह सार्थक होगा ? सुनो-किसी मनुष्य को अग्नि को आवश्यकता थी। वह उसकी खोज में निकला। रात्रि में उसे खद्योत-जुगनू दिखाई दिये। उसने उनको अग्नि समझा । उन पर गोबर का बुरादा और तृण रखे । अपनी अज्ञता के कारण वह अग्नि उत्पन्न नहीं कर सका ; क्योंकि यह अग्नि उत्पन्न करने का उपाय नहीं है, अनुपाय-विपरीत उपाय है। "जैसे गाय के सींग को दुहने से कोई दूध प्राप्त नही कर सकता, उसी प्रकार अनुपाय से मनुष्य का कार्य नहीं सधता। शत्रुओं के निग्रह तथा मित्रों के प्रग्रह-अनुग्रह, संवर्धन जैसे उपायों से मनुष्य की कार्य सिद्धि होती है। "राजा श्रेणि-प्रधानों-विभिन्न जातियों एवं समुदायों के मुखियों, अपने प्रियजनों तथा अमात्यों के साथ उत्तम व्यवहार करते हुए पृथ्वी पर शासन करते हैं, आधिपत्य करते हैं। महौषध का आह्वान श्वेत छत्रवासिनी देवी द्वारा परितप्त हथोडे से सिर फोड दिये जाने की धमकी दिये जाने से भयाक्रान्त राजा ने अपने चारों अमात्यों को बुलवाया और आदेश दिया कि तुम चारों रथों में बैठो, नगर के चारों दरवाजों से अलग-अलग दिशाओं में जाओ, महौषध की खोज करो, जहाँ भी उसे देखो, सत्कृत-सम्मानित कर शीघ्र यहाँ लाओ। राजा के आदेशानुसार चारों अमात्य चार दिशाओं में गये। जो पूर्वी, पश्चिमी तथा उत्तरी द्वार से निकल कर गये, उनको महौषध नहीं मिला, पर, जो दक्षिणी द्वार से गया था, उसने देखा, महौषध घड़े बना रहे कुम्भकार के पास मिट्टी ला रहा था, मिट्टी लाकर कुम्भकार का चाक घुमा रहा था। उसका शरीर मिट्टी से पुता था। तदनन्तर वह घास पर बैठा हुआ थोड़ी-थोड़ी दाल के साथ जौ का भात मिलाकर मुट्ठी में बाँध-बाँध कर खा रहा था। नगर से भागते समय महौषध के मन में आया हो, शायद राजा को शंका हो गई है कि महौषध पण्डित राज्य हथिया लेगा। अच्छा हो, मैं पेट भरने के लिए कुम्भकार के यहाँ काम करूं । राजा बुद्धिमान् है, जब यह सुनेगा कि महौषध कुम्मकार के यहाँ परिश्रम कर गुजारा कर रहा है तो उसकी शंका निर्मूल हो जायेगी। १. को नु सन्तम्हि पज्जोते अग्गिपरियेसनं चरं । अद्द क्खि रत्ति खज्जोतं जातवेदं अमथ ।।४३।। स्वास्स गोमय चुण्णानि अभिमत्थं तिणानि च । विपरीताय सज्जाय नास क्खि सज्जले तवे ॥४४॥ एवम्पि अनुपायेन अत्थं न लभते भगो। विसाणतो गवं दोहं यत्थ खीरं न विन्दति ॥४५।। विविधेहि उपायेहि अत्थं पप्पोन्ति माणवा। निग्गहेन अभित्तानं मित्तानं पग्गहेन च ॥४६॥ सेणिमोक्खोपलाभेन वल्लमानं नयेन च । जगति जगतीपाला आवसंति वसुंधरं ॥४७॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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