SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्व : आचार: कथानुयोग ] कथानुयोग — चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २२३ जल रहे थे । उनके मध्य में खद्योत के समान अग्नि उत्पन्न हुई। वह तत्क्षण इतनी प्रोन्नत तथा प्रवर्धित हुई कि उन चारों अग्नि-स्कन्धों को उल्लंघित कर ब्रह्मलोक तक जा पहुँची । उससे सारा वायु-मण्डल आलोकमय हो गया । उस आलोक में इतना तेज था कि भूमि पर पडा हुआ सर्षप का एक दाना तक दृष्टिगोचर होता था । देववृन्द, मनुष्य वृन्द सभी मालाओं द्वारा, विविध सुगन्धित पदार्थों द्वारा उसकी अर्चना करते थे । उस अग्नि में एक अद्भुत दिव्यता थी। लोग उसमें घूमते थे, पर किसी का एक रोम तक गर्म नहीं होता था । राजा ने ज्योंही यह स्वप्न देखा, वह भयाक्रान्त हो गया । चिन्तावश बैठा-बैठा सोचता रहा । काफ़ी दिन चढ़ गया । चारों पण्डित राजा के पास आये और पूछा - "राजन् ! क्या रात को सुख से नींद आई ?" " राजा ने कहा - "पण्डितो ! मुझे सुख कहाँ है ? आज मैं बहुत चिन्तोद्विग्न हूँ ।' उसने जो स्वप्न देखा था, वह उनको बताया । इस पर सेनक पण्डित ने कहा - " महाराज भयभीत न हों। यह स्वप्न शुभ सूचक है । इससे प्रकट है, आपकी उन्नति होगी ।" राजा - "ऐसा कैसे कहते हो ?" सेनक - "महाराज ! यह स्वप्न इस तथ्य का द्योतक है कि हम चारों पण्डितों को हतप्रभ कर देने वाला एक अन्य पाँचवां पण्डित उत्पन्न होगा । आप द्वारा स्वप्न में देखे गये, राज- प्रांगण के चारों कोनों में विद्यमान चारों अग्नि-स्कन्धों के समान हम चारों पण्डित हैं। उनके बीच में उत्पन्न, ब्रह्मलोक तक पहुँचे दिव्य अग्नि-स्कन्ध के समान पांचवा पण्डित होगा । वह देवों में, मनुष्यों में सबसे अद्भुत होगा ।" राजा - "इस समय वह कहाँ है ?" सेनक –“राजन् ! या तो वह अपनी माता के गर्भ में आया होगा या आज उसने अपनी माता के गर्भ से जन्म लिया होगा । " सेनक ने ये सब बातें अपने विद्या-बल द्वारा इस प्रकार प्रकट कीं, मानो अपनी दिव्यदृष्टि से वह उन्हें प्रत्यक्ष दृष्टिगत कर रहा हो ।" राजा ने इस बात को ध्यान में रखा । मिथिला के चारों दरवाजों पर पूर्वी यवमज्झक, दक्षिणी यवमज्झक, उत्तरी यवमज्भक तथा पश्चिमी यवमज्भक नामक चार निगम बसे थे । पूर्वी यवमज्झक में श्रीवर्धन नामक एक श्रेष्ठी निवास करता था । उसकी पत्नी का नाम सुमना देवी थी। राजा ने जिस दिन सपना देखा, उसी दिन त्रयस्त्रिंश देव भवन से च्युत होकर बोधिसत्त्व ने सुमना देवी की कुक्षि में प्रवेश किया। उसी समय एक सहस्र देवपुत्र भी त्रायस्त्रिंश देव-भवन से च्युत हुए, उसी निगम में श्रेष्ठियों, अनुश्रेष्ठियों के कुलों में प्रविष्ट हुए — उनकी गृहणियों के कुक्षिगत हुए । दिव्य वनौषधि दश महीने व्यतीत हुए । श्रेष्ठी श्रीवर्धन की पत्नी सुमना देवी ने पुत्र को जन्म दिया । शिशु का वर्ण स्वर्ण- सदृश देदीप्यमान था । उस समय शक्र ने मनुष्य-लोक की ओर दृष्टिपात किया, जाना कि बोधिसत्त्व ने माता की कुक्षि से जन्म लिया है । शक्र ने विचार किया, यह बुद्धाङ्कुर है, जो अनेक देवों के साथ यहाँ उद्भुत हुआ है। मुझे चाहिए कि मैं इस तथ्य को उद्भासित करूं । शक्र बोधिसत्त्व के अपनी माता की कुक्षि से बहिर्गत होने के समय अदृश्य Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy