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________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-३ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ५६५ बोध्यंग्ग (सात)-स्मृति, धर्मविचय, वीर्य, प्रीति, प्रक्षब्धि, समाधि आर उपेक्षा। ब्रह्मचर्य फल-बुद्ध-धर्म। ब्रह्मदण्ड-जिस भिक्ष को ब्रह्मदण्ड दिया जाता है, वह अन्य भिक्षुओं के साथ अपनी इच्छा नुसार बोल सकता है, पर अन्य भिक्ष न उसके साथ बोल सकते हैं, न उसे उपदेश कर सकते हैं और न उसका अनुशासन कर सकते हैं। ब्रह्मचर्य वास–प्रव्रज्या । ब्रह्मविहार-मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा भावना। ब्रह्मलोक-सभी देव लोकों में श्रेष्ठ । इसमें निवास करने वाले ब्रह्मा होते हैं। भक्तच्छेद --- भोजन न मिलना। भवान--ध्यान-योग का साधक अपने ध्यान के बल पर स्थूल जगत् से सूक्ष्म जगत् में प्रवेश करता है। ऐसी गति से वह ऐसे एक बिन्दु पर पहुँचता है, जहां जगत् की समाप्ति हो जाती है। यही बिन्दु भवाग्र कहलाता है। भिन्नस्तूप--नींव-रहित। मध्यम प्रतिपदा-दो अन्तों-काम्य वस्तुओं में अत्यधिक लीनता और अत्यधिक वैराग्य से शरीर को कष्ट देना-के बीच का मार्ग । मनोमय लोक—देव लोक। महा अभिज्ञ धारिका-देखें, अभिज्ञा। महागोचर-आराम के निकट सघन बस्ती वाला। महाब्रह्मा-ब्रह्मालोक वासी देवों में एक असंख्य कल के आयुष्य वाले देव । देखें, ब्रह्मलोक । महाभिनिष्क्रमण-बोधिसत्त्व का प्रव्रज्या के लिए घर से प्रस्थान करना। माणवक-ब्राह्मण-पुत्र मार-अनेक अर्थों में प्रयुक्त । सामान्यतया मार का अर्थ मृत्यु है। मार का अर्थ क्लेश भी है. जिसके वश में होने से मनुष्य मृत्युमय संसार को प्राप्त होता है। वशवर्ती लोक के देवपुत्र का नाम भी मार है, जो अपने आपको कामावचर लोक का अधिपति मानता था। जो है कोई भी काम-भोगों को छोड़ कर साधना करता, उसको वह अपना शत्रु समझता और साधना-पथ से उसे विचलित करने का प्रयत्न करता। मुदिता-सन्तोष। मैत्री-सभी के प्रति मित्र-भाव । मैत्री चेतो विमुक्ति-'सारे प्राणी वैर-रहित, व्यापाद रहित, सुखपूर्वक अपना परिहण करें।' इस प्रकार मैत्री चित्त की विमुक्ति होती है। मैत्री पारमिता—जिस प्रकार पानी पापी और पुण्यात्मा, दोनों को ही समान रूप से शीतलता पहुंचाता है और दोनों के ही मैल को धो डालता है, उसी प्रकार हितैषी और अहितैषी, दोनों के प्रति समान भाव से मैत्री-भावना का विस्तार करना। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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