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________________ ५५६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ छपस्थ-घातीकर्म के उदय को छद्म कहते हैं । इस अवस्था में स्थित आत्मा छमस्थ कहलाती है। जब तक आत्मा को केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, तब तक वह छद्मस्थ ही कहलाती जंघाचरण लब्धि- अष्टम (तेला) तप करने वाले भिक्षु को यह दिव्य शक्ति प्राप्त हो सकती है । जंघा से सम्बन्धित किसी एक व्यापार से तिर्यक् दिशा की एक ही उड़ान में वह तेरहवें रुचकवर द्वीप तक पहुँच सकता है। पुनः लौटता हुआ वह एक कदम आठवें नन्दीश्वर द्वीप पर रख कर दूसरे द्वीप में जम्बूद्वीप के उसी स्थान पर पहुँच सकता है; जहाँ से कि वह चला था। यदि वह उड़ान ऊर्ध्व दिशा की हो तो एक ही छलांग में वह मेरुपर्वत के पाण्डुक उद्यान तक पहुँच सकता है और लौटते समय एक कदम नन्दनवन में रख कर दूसरे कदम में जहां से चला था, वहीं पहुँच सकता है। जम्बूद्वीप--असंख्य द्वीप और असंख्य समुद्र हैं। प्रत्येक द्वीप को समुद्र और समुद्र को द्वीप घेरे हुए है। जम्बूद्वीप उन सबके मध्य में है । यह पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण एकएक लाख योजन है। इसमें सात वर्षक्षेत्र हैं-१. भरत, २. हैमवत, ३. हरि, ४. विदेह, ५. रम्यक् ६. हैरण्यवत और ७. ऐरावत । भरत दक्षिण में, ऐरावत उत्तर में और विदेह (महाविदेह) पूर्व व पश्चिम में है। जल्लोषष लब्धि-तपस्या विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति । तपस्वी के कानों, आँखों और शरीर के मैल से समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। जातिस्मरण ज्ञान-पूर्व-जन्म की स्मति कराने वाला ज्ञान । इस ज्ञान के बल पर व्यक्ति एक से नो पूर्व-जन्मों को जान सकता है । एक मान्यता के अनुसार नौ सौ भब तक भी जान सकता है। जिन-राग-द्वेष-रूप शत्रुओं को जीतने वाली आत्मा। अर्हत्, तीर्थङ्कर आदि इसके पर्याय वाची हैं। जिनकल्पिक-गच्छ से असम्बद्ध होकर उत्कृष्ट चारित्र-साधना के लिए प्रयत्नशील होना। यह आचार जिन तीर्थङ्करों के आचार के सदृश कठोर होता है। अतः जिनकल्प कहा जाता है। इसमें साधक अरण्य आदि एकान्त स्थान में एकाकी रहता है। रोग आदि के उपाशमन के लिए प्रयत्न नहीं करता। शीत, ग्रीष्म आदि प्राकृतिक कष्टों से विचलित नहीं होता। देव, मनुष्य, तिर्यञ्च आदि के उपसर्गों से भीत हो कर अपना मार्ग नहीं बदलता । अभिग्रहपूर्वक भिक्षा लेता है और अहर्निश ध्यान व कायोत्सर्ग में लीन रहता है। यह साधना संहननयुक्त साधक के द्वारा विशिष्ट ज्ञान-सम्पन्न होने के अनन्तर ही की जा सकती है। जिन-मार्ग-जिन द्वारा प्ररूपित धर्म । बीताचार-पारम्परिक आचार । जीव-पंचेन्द्रिय प्राणी। सम्भक-ये देव स्वेच्छाचारी होते हैं । सदैव प्रमोद-युक्त, अत्यन्त क्रीड़ाशील, रति-युक्त और कुशीलरत रहते हैं। जिस व्यक्ति पर क्रुद्ध हो जाते हैं, उसका अपयश करते हैं और जो Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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