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________________ इतिहास और परम्परा त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४१६ सच्चक निगण्ठपुत्र भगवान् के भाषण का अभिनन्दन व अनुमोदन कर आसन से उठ कर चला गया। -मज्झिम निकाय, महासच्चक सुत्तन्त, १-४-६ आधार से। समीक्षा जन-परम्परा में इस नाम का कोई व्यक्ति नहीं मिलता। मज्झिम निकाय में बताया गया है- सच्चक निगंठपुत्त प्रलापी, पण्डितमानी और बहुत लोगों से सम्मानित था। वह कहा करता था-'मैं ऐसे किसी श्रमण, ब्राह्मण, संघपति, गणाचार्य व स्वयं को अर्हत् सम्यग् सम्बद्ध कहने वाले को भी नहीं देखता, जो मेरे साथ वाद-विवाद में कम्पित, संप्रकम्पित न हो, जिसकी काँख से पसीना न छूटने लगे। यदि मैं अचेतन स्तम्भ से भी शास्त्रार्थ करूं, तो वह भी कम्पित, संप्रकम्पित, संप्रवेधित होगा। मनुष्य की तो बात ही क्या ?' बुद्ध के साथ महती परिषद् में उसने शास्त्रार्थ किया । अन्त में वही निरुत्तर रहा। बुद्ध ने कहा- देख, मेरे तो शरीर में पसीना नहीं है, तेरे ललाट पर पसीना आया है।" अन्त में बुद्ध के प्रति नतमस्तक हो, उसने बुद्ध को अपने यहाँ भोजन के लिए आमंत्रित किया। लिच्छवियों ने उसी रात पाँच सौ स्थालीपाक (सीधा) उसके आराम में भेज दिये। उसने भोजन बनवा. बद्ध व भिक्ष-संघ को तप्त किया। साथ-साथ यह भी कहा -“भगवन् ! इस दान का फल लिच्छवियों को मिले।" बुद्ध ने कहा-'अवीतराग, अवीतद्वेष व अवीतमोह को देने में जो पुण्य होता है, वह उन्हें मिलेगा और वीतराग, वीतद्वेष व वीतमोह को देने में जो पुण्य होता है, वह तुझे मिलेगा अर्थात् उन्होंने यह दान तुझे दिया है और तूने यह दान मुझे दिया है। मझिम निकाय अट्ठकथा में आचार्य बुद्धघोष ने बताया है-''एक निगंठ और निगंठी बहत विवादशील थे। दोनों में विवाद ठना । एक-दूसरे को कोई न हरा सका । लिच्छवियों ने समझौते के रूप में दोनों का विवाह करा दिया। चार पुत्रियाँ हुईं, जो सारिपुत्र से विवाद में परास्त हो भिक्षुणियां बन गई। उसी निगंठ-दम्पती की पांचवीं सन्तान के रूप में यह सच्चक पैदा हुआ। निगंठ-निगंठी का पुत्र होने से वह सच्चक निगंठपुत्र कहलाया।"२ बद्ध ने इसे सम्बोधन में सर्वत्र ही 'अग्निवैश्यायन' कहा है। यह इसका गोत्र था। महावीर को भी पिटक-साहित्य में कुछ एक स्थलों पर 'अग्निवैश्यायन' कहा गया है। हो सकता है, पिटकों के संकलन-काल में निगंठपुत्र के अग्निवैश्यायन नाम का विपर्यास महावीर के साथ हो गया हो। डॉ० जेकोबी का कहना है-सुधर्मा के अग्निवश्यायन गोत्री होने के कारण यह विपर्यास हुआ है। पर 'निगण्ठ नातपुत्र' और 'निगण्ठपुत्र' के नाम-साम्य में इस विपर्यास की अधिक सम्भवता लगती है। १. मज्झिम निकाय, चूलसच्चक सुत्त। २. मज्झिम निकाय, अट्ठकथा, १-४५० । ३. दीघ निकाय, सामञफल सुत्त। 8. S, B. E., vol XLV, introduction, p. XXI. Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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