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________________ ३६४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ धर्मऋद्धि प्रातिहार्यं तू ने कैसे दिखाया ? न यह (आचरण) अप्रसन्नों को प्रसन्न करने के लिए है और न प्रसन्नों (श्रद्धालुओं) को अधिक प्रसन्न करने के लिए; अपितु अप्रसन्नों को (और भी) अप्रसन्न करने के लिए तथा प्रसन्नों में से भी किसी किसी को उलट देने के लिए है । " भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए भगवान् बुद्ध ने कहा - "गृहस्थों को उत्तर मनुष्यधर्म- ऋद्धि प्रातिहार्य नहीं दिखाना चाहिए। जो दिखाये, उसे दुक्कट का दोष । इस पात्र के टुकड़े-टुकड़े कर भिक्षुओं को अञ्जन पीसने के लिए दे दो ।" 著 उसी प्रसंग पर भिक्षुओं के पात्र सम्बन्धी नियम का विधान करते हुए बुद्ध ने कहा"भिक्षुओं को स्वर्ण, रौप्य, मणि, वैडूर्य, स्फटिक, काँस्य, काँच, रांगा, सीसा, ताम्रलेह व काष्ठ का पात्र नहीं रखना चाहिए। जो रखे, उसे दुक्कट का दोष । केवल लोहे और मिट्टी के पात्र की मैं अनुज्ञा "देता हूँ ।" - विनय पिटक, चुल्लवग्ग, ५-१-१० ; धम्मपद - अट्ठकथा, ४-२ समीक्षा यह सारा उदन्त अतिशयोक्ति से मरा है । पिण्डोल भारद्वाज का चन्दन- पात्र के लिए ऋद्धि प्रातिहार्य का दिखलाना बुद्ध के द्वारा गृहर्य बताया गया है । यह कल्पना भी कैसे की जा सकती है कि निगण्ठ नातपुत्त उस चन्दन पात्र को लेने के लिए ललचाये होंगे और इस कौतुक में प्रयत्नशील हुए होंगे। जैन परम्परा में तो किसी भी ऋद्धि-प्रदर्शन का सर्वथा वर्जन है ।' लगता है, पिटकों में जहाँ भी इतर तंथिकों की न्यूनता व्यक्त करने का प्रसंग होता है, वहीं निगण्ठ नातपुत्त, पूरण कस्सप आदि सारे नाम दुहरा दिये जाते हैं । १६. छः बुद्ध ने पूरण कस्सप, मक्खली गौशाल, निगण्ठ नातपुत्त, संजय वेलट्ठिपुत्त, पकुध कच्चायन, अजित केसकम्बली आदि छहों शास्ता आचार्यों की सेवा से चिन्तामणि आदि विद्याओं में प्रवीण हो, 'हम बुद्ध हैं' यह घोषित करते हुए देश-देशान्तर में विचर रहे थे। वे चारिका करते हुए क्रमशः श्रावस्ती पहुंचे । उनके भक्तों राजा को सूचित किया, पूरण कस्सप आदि छः शास्ता बुद्ध हैं, सर्वज्ञ हैं और अपने नगर में आये हैं । राजा ने उन्हें, छहों शास्ताओं को निमंत्रित कर अपने राज-प्रासाद में लाने का निर्देश दिया। भक्तों ने अपने-अपने शास्ता को राजा का निमंत्रण दिया और राजा के यहाँ भिक्षा ग्रहण करने के लिए उन्हें बाध्य किया । उन सभी में वहाँ जाने का साहस नहीं था । भक्तों द्वारा पुनः पुनः आग्रह किये जाने पर वे एक साथ ही राजप्रासाद की ओर चले । राजा ने उनके लिए बहुमूल्य आसन बिछवा दिये थे । छहों शास्ता उन आसनों पर नहीं बैठे। वे धरती पर ही बैठे । उन आसनों पर बैठने से निर्गुणों के शरीर में राज-तेज छा जाता है; ऐसी उनकी मान्यता थी । राजा ने इससे निर्णय किया, इनमें शुक्ल धर्म नहीं है । राजा ने उन्हें भोजन प्रदान नहीं किया। इस प्रकार वे ताड़ से गिरे तो थे ही और राजा ने मुंगरे की मार जैसा एक प्रश्न उनसे और कर लिया- "तुम बुद्ध हो या नहीं ?” सारे ही शास्ता घबरा गये । उन्होंने सोचा - "यदि हम बुद्ध होने का दावा करेंगे, १. देखें, जयाचार्य कृत प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, गोशालाधिकार, पृ० १६० । Jain Education International 2010_05 के आधार से । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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