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________________ ३२४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ जैन आगमों में इस प्रसेनजित् का नाम आगम-ग्रन्थों में कहीं भी नहीं मिलता। श्रावस्ती के राजा का नाम जितशत्रु आता है ।' महावीर से उसका साक्षात् हुआ, यह भी स्पष्ट नहीं है। महावीर के दो प्रमुख श्रावक श्रावस्ती के थे—नन्दिनीपिआ और साहिलीपिआ। उनके लिए आया है-जहा आणन्दे तहा निग्गए । इस 'तहा' (तथा) शब्द से जितशत्रु के भी वन्दनार्थ जाने का अर्थ निकाला जाता है, पर, वह बहुत ही दूरान्वयी लगता है। आगम-रचयिताओं ने वाणिज्य ग्राम, चम्पा, वाराणसी, आलम्भिया आदि अनेक नगरियों के राजा का नाम जितशत्रु माना है। लगता है, उस युग में 'जितशत्रु' एक ऐसा गुणवाचक शब्द था, जो किसी भी राजा के लिए प्रयुक्त किया जा सकता था। रायपसेणिय आगम में श्रावस्ती के राजा जितशत्रु का कुछ विस्तृत वर्णन आता है, पर, महावीर के साथ उसका कोई सम्बन्ध हो, ऐसा उल्लेख नहीं है। दीघ निकाय के अनुसार राजा प्रदेशी प्रसेनजित्त के अधीन था। रायपसेणिय आगम के अनुसार जितशत्रु प्रदेशी राजा का अन्तेवासी था। कौन किसके अधीन था, इस चर्चा में हम न भी जाएं, तो भी इतना निष्कर्ष तो इन उल्लेखों से निकल ही जाता है कि प्रसेनजित् को ही जैन परम्परा में जितशत्रु कहा गया है। यह भी बहुत सम्भव है कि वह बुद्ध का परम अनुयायी था, इसलिए ही आगम-रचयिताओं न उसके जीवन-सम्बन्धी घटनाओं का उल्लेख किया है और न उसके प्रसेनजित् नाम का ही; वर्णन-शैली के अनुसार जहाँ श्रावस्ती के राजा का नाम अपेक्षित हुआ, वहाँ से उसे उपेक्षा-भाव से 'जितशत्रु' कह दिया है। इसका तात्पर्य यह तो नहीं लेना चाहिए। अन्य जिन-जिन राजाओं को जितशत्रु कहा गया है, उन सबका भी यही निमित्त हो।। श्रावस्ती का राजा भले ही महावीर का अनुयायी न रहा हो, पर, इसमें सन्देह नहीं कि श्रावस्ती निर्ग्रन्थों का भी मुख्य केन्द्र थी। केशीकुमार और गौतम की चर्चा यहीं होती है। महावीर के साथ गोशालक का विवाद यहीं होता है । श्रावस्ती के उपासक महावीर के दर्शनार्थ समूह रूप में कयंगला गये, ऐसा भी उल्लेख है।४ चेटक जिस प्रकार प्रसेनजित् का उल्लेख आगम-ग्रंथों में नहीं मिलता, उस प्रकार राजा चेटक का उल्लेख त्रिपिटक ग्रंथों में नहीं मिलता। प्रसेनजित् की तरह वह भी उस युग का एक ऐतिहासिक व्यक्ति था। त्रिपिटक ग्रन्थों में उसका उल्लेख न होने का कारण भी यही हो सकता है कि वह भगवान् महावीर का परम उपासक था। जैन-परम्परा राजा चेटक को दृढ़धर्मी उपासक के रूप में मानती है। यह भी कहा जाता है कि सार्मिक राजा के अति. रिक्त अन्य राजा को अपनी कन्या न ब्याहने का उसका प्रण था; पर, आगम ग्रन्थों में तो १. उवासगदशाओ अ०६,१०रायपसेणिय सुत्तं । २. देखें, उवसगदसाओ के क्रमशः अ० १, २, ३, ५ इत्यादि । ३. दीघ निकाय, २।१०।। ४. भगवती, सूत्र शतक, २, उद्देशक १। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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