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________________ इतिहास और परम्परा अनुयायी राजा २६४ पुराणों में भी अजातशत्रु नाम व्यवहृत हुआ है। वस्तुस्थिति यह है कि कूणिक मूल नाम है और अजातशत्र उसका एक विशेषण (epithet) | कभी-कभी उपाधि या विशेषण मल नाम से भी अधिक प्रचलित हो जाते हैं। जैसे-वर्धमान मूल नाम है, महावीर विशेषता-परक ; पर, व्यवहार में 'महावीर' ही सब कुछ बन गया है । भारतवर्ष के सामान्य इतिहास में केवल अजातशत्रु नाम ही प्रचलित है। मथुरा संग्रहालय के एक शिलालेख में 'अजातशत्रु कूणिक' लिखा गया है । वस्तुतः इसका पूरा नाम यही होना चाहिए। नवीन साहित्य में 'अजातशत्रु कूणिक' शब्द का ही प्रयोग किया जाये, यह अधिक यथार्थता बोधक होगा। _ 'अजातशत्रु' शब्द के दो अर्थ किये जाते हैं-न जातः शत्रुर्यस्य अर्थात् 'जिसका शत्रु जन्मा ही नहीं, और अजातोऽपि शत्रुः अर्थात् 'जन्म से पूर्व ही (पिता का) शत्रु'। दूसरा अर्थ आचार्य बुद्धघोष का है और वह अपने आप में संगत भी है, पर, यह युक्ति-पुरस्सर है और पहला अर्थ सहज है। कूणिक बहुत ही शौर्यशील और प्रतापी नरेश था। अनेकों दुर्जय शत्रुओं को उसने जीता था; अत: अजातशत्रु विशेषण गर्दा का द्योतक न होकर उसके शौर्य का द्योतक अधिक प्रतीत होता है। कूणिक' नाम 'कूणि' शब्द से बना है। 'कूणि' का अर्थ है-अंगुली का घाव । 'कूणिक' का अर्थ हुआ-अंगुली के धाव वाला । आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं : रूढवणापि सा तस्य कूणिताऽभवदंगुलिः । ततः सपाँशुरमणः सोऽभ्यश्चीयत कूणिका ।। आवश्यक चूर्णि में कूणिक को 'अशोक चन्द्र' भी कहा गया हैं पर, यह विरल प्रयोग महाशिलाकंटक-युद्ध और वज्जी-विजय अजातशत्रु के जीवन का एक ऐतिहासिक घटना-प्रसंग जैन शब्दों में 'महाशिलाकंटकयुद्ध' तथा बौद्ध शब्दों में 'वज्जी-विजय' रहा है। दोनों परम्पराओं में युद्ध के कारण, युद्ध की प्रक्रिया और युद्ध की निष्पत्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से मिलती है ; पर, इसका सत्य एक है कि वैशाली गणतन्त्र पर वह मगध की ऐतिहासिक विजय थी। इस युद्ध-काल में महावीर और बुद्ध; दोनों वर्तमान थे। दोनों ने ही युद्ध-विषयक प्रश्नों के उत्तर दिये हैं। दोनों ही १. वायुपुराण, अ० ६६, श्लो० ३१६; मत्स्यपुराण, अ० २७१, श्लो०६। २. Journal of Bihar and Orissa Research Society, vol. V, Part, IV, , PP. 550-51. ३. Dialogues of Buddha, vol. II, P. 78. ४. दीघ निकाय, अट्ठकथा, १, १३३ । ५. Apte s Sanskrit-English Dictionary, vol. I, p. 580. ६. त्रिषष्टिशलाकापूरुषचरित्र. पर्व १०, सर्ग ६, श्लो० ३०६ । ७. असोगवण चंद उत्ति असोगचंदुत्ति नामं च से कतं, तत्थ य कुक्कुडपिच्छेणं काणंगुली से विद्धा सुकुमालिया, सा ण पाउणति सा कुणिगा जाता, ताहे से दासा रव्वेहिं कतं नामं कूणिओत्ति। -आवश्यक चूर्णि, उत्तर भाग, पत्र १६७ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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