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________________ इतिहास और परम्परा] विरोधी शिष्य २६७. संघ-भेद की योजना असफल देवदत्त ने अपनी विद्रोही प्रवृत्तियों को उन कर दिया। वह कोकालिक कटमोरतिस्सक और खण्ड देवी-पुत्र समुद्र दत्त के पास गया । संव-भेद के लिए प्रोत्साहित करते हए उनके समक्ष उसने एक प्रस्ताव रखा--"हम श्रमण गौतम से आग्रह करें कि भिक्ष-संघ के लिए पाँच नये नियम बनायें । उनके अनुसार १. भिक्ष जीवन-भर अरण्य में ही रहे, ग्राम में नहीं; २. जीवन-भर पिण्डपातिक होकर रहे, किन्तु निमंत्रण की भिक्षा स्वीकार न करे; ३. जीवनभर पांसुकूलिक होकर ही रहे । गृहस्थ द्वारा दिये गए चीवर का उपयोग न करे; ४. जीवन-भर वृक्षमूलिक ही रहे; ५. जीवन-भर मछली-मांस न खाये । श्रमण गौतम इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेंगे। तब हम जनता को बहुत सहजता में उससे विमुख कर अपनी ओर आकर्षित कर सकेंगे।" देवदत्त परिषद् के साथ बुद्ध के पास गया। अभिवादन कर अपना चिर-चिन्तित प्रस्ताव उनके समक्ष प्रस्तुत किया। बुद्ध ने उत्तर में कहा - "देवदत्त ! अलम् ! मैंने अरण्यवास व ग्राम-वास, पिण्डपातिक व निमन्त्रित भिक्षा, पांसुकूलिक व गृहस्य द्वारा प्रदत्त वस्त्र और आठ मास वृक्षमूल शयनासन की अनुज्ञा दी है। मैंने अदृष्ट,' अश्रु तव अपरिशंकित, इस तीन कोटि से परिशुद्ध मांस की भी अनुज्ञा दी है । मैं इनमें कोई दोस नहीं मानता।" बुद्ध ने जब देवदत्त का प्रस्ताव ठुकरा दिया, तो वह अत्यन्त हर्षित वहाँ से राजगृह में चला आया। जनता के समक्ष बुद्ध की कलई खोलते हुए वह कहने लगा- “भगवान् अल्पेच्छ, सन्तुष्ट, सल्लेक (तप), धुत (त्यागमय रहन-सहन), प्रासादिक, अपचय (त्याग) और वीर्यारम्भ (उद्योग) के प्रशंसक हैं, अतः हमने संप के लिए पाँव नियम बनाने का प्रस्ताव रखा। किन्तु, उन्होंने संघ के लिए इसकी अनुमति नहीं दी। हम इन पाँचों नियमों का अनुवर्तन करते हैं।" अश्रद्धालु और मूर्ख इसे सुन कहने लगे--"यह शाक्यपुत्रीय श्रमण अववत सल्लेखवृति (तपस्वी) हैं । श्रमण गौतम संग्रहशील और संग्रह के लिए ही प्रेरणा देता है।" जो श्रद्धालु व धीमान् थे, वे देवदत्त की इस कुत्सित प्रवृति पर हैरान थे । उनके मुंह से एक ही बात निकल रही थी, “देवदत्त भगवान् के संघ-भेद के लिए ही प्रयत्न कर रहा है।" भिक्षुओं ने इस जन-चर्चा को सुना । उन्होंने आकर बुद्ध से कहा । बुद्ध ने भिक्ष ओं के समक्ष देवदत्त को लक्षित कर कहा--"बस, देवदत्त ! संघ में फूट डालना तुझे रुचिकर न हो । संघ-भेद भारी अपराध है। जो अविभक्त संघ को विभक्त करता है, वह नरक में कल्प भर रहने वाले पाप को कमाता है। कल्प भर नरक में पकता है। जो छिन्न-भिन्न संघ को एक करता है, वह ब्राह्म (उत्तम) पुण्य को कमाता है। कल्प भर स्वर्ग में आनन्द करता है। इसलिए देवदत्त ! संघ में फट डालना तुझे रुचिकर न हो।" ___ आयुष्मान् आनन्द पूर्वाह्न में राजगृह में भिक्षा के लिए गये । देवदत्त ने उन्हें देखा और अपने पास बुलाया। आनन्द से उसने कहा--"आवुस आनन्द ! आज से मैं भगवान् से व भिक्ष -संघ से अलग ही उपोसथ करूगा, अलग ही संघ-कर्म करूँगा।" १. मेरे लिए मारा गया, यह देखा न हो। २. मेरे लिए मारा गया, यह सुना न हो। ३. मेरे लिए मारा गया, यह सन्देह न हो। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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