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________________ होती थी। इतिहास और परम्परा] पारिपाश्विक भिक्षु-भिक्षुणियां २२१ प्रकम्पित कर दिया। संविग्न और रोमांचित उन प्रमादी भिक्षुओं को बुद्ध ने उद्बोधन दिया।' उववाई में महावीर के पारिपाश्विक भिक्षुओं के विषय में बताया गया है : १. अनेक भिक्षु ऐसे थे, जो मन से भी किसी को अभिशप्त और अनुगृहीत कर सकते थे। २. अनेक भिक्षु ऐसे थे, जो वचन से ऐसा कर सकते थे। ३. अनेक भिक्षु ऐसे थे, जो कायिक प्रवर्तन से ऐसा कर सकते थे । ४. अनेक भिक्षु श्लेष्मौषध लब्धि वाले थे। उनके श्लेष्म से ही सभी प्रकार के रोग मिटते थे। ५. अनेक भिक्षु जल्लोषध लब्धि के धारक थे। उनके शरीर के मेल से दूसरों के रोग मिटते थे। ६. अनेक भिक्षु विपुषौषध लब्धि के धारक थे। उनके प्रस्रवण की बूंद भी रोगनाशक ७. अनेक भिक्षु आमोषध लब्धि के धारक थे। उनके हाथ के स्पर्श मात्र से रोग मिट जाते थे। ८. अनेक भिक्षु सर्वोषध लब्धि वाले थे। उनके केश, नख, रोम आदि सभी औषध रूप होते थे। ९. अनेक भिक्षु पदानुसारी लब्धि के धारक थे, जो एक पद के श्रवण-मात्र से अनेकानेक पदों का स्मरण कर लेते थे। १०. अनेक भिक्षु संभिन्न श्रोतृ-लब्धि के धारक थे, जो किसी भी एक इन्द्रिय से पाँचों इन्द्रिय के विषय ग्रहण कर सकते थे। उदाहरणार्थ-कान से सुन भी सकते थे, देख भी सकते थे, चख भी सकते थे आदि। ११. अनेक भिक्षु अक्षीणमहानस लब्धि के धारक थे, जो प्राप्त अन्न को जब तक स्वयं न खा लेते थे; तब तक शतशः-सहस्रशः व्यक्तियों को खिला सकते थे। १२. अनेक भिक्षु विकुर्वण ऋद्धि के धारक थे। वे अपने नाना रूप बना सकते थे। १३. अनेक भिक्षु जंघाचारण लब्धि के धारक थे। वे जंघा पर हाथ लगा कर एक ही उड़ान में तेरहवें रुचकवर द्वीप तक और मेरु पर्वत पर जा सकते थे। १४. अनेक भिक्षु विद्याचारण लब्धि के धारक थे। वे ईषत् उपष्टम्भ से दो उड़ान में आठवें नन्दीश्वर द्वीप तक और मेरु पर्वत पर जा सकते थे। १५. अनेक भिक्षु आकाशातिपाती लब्धि के धारक थे। वे आकाश में गमन कर सकते थे। आकाश से रजत आदि इष्ट-अनिष्ट पदार्थों की वर्षा कर सकते थे।" है मौग्गल्लान का निधन बहुत ही दयनीय प्रकार का बताया गया है । उनके ऋद्धि-बल से जल-भुनकर इतर तैथिकों ने उनको पशु-मार से मारा। उनकी अस्थियाँ इतनी चूर-चूर कर दी गईं कि कोई खण्ड तक तण्डुल से बड़ा नहीं रहा । यह भी बताया गया है कि प्रतिकारक १. संयुत्त निकाय, महावग्ग, ऋद्धिपाद, संयुत्त प्रासादकम्पनवग्ग, मौग्गल्लान' सुत्त । २. अप्पेगइया मणेणं सावाणुग्गहसमत्था, वएणं सावाणुग्गहसमत्था, काएणं सावाणुग्गह समत्था, अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता, एवं जल्लौसहिपत्ता, विप्पोसहिपत्ता, आमोसहिपत्ता, सव्वोसहिपत्ता,.. पयाणुसारी, संभिन्नसोआ, अक्खीणमहाणसिआ, विउव्वणिडिढपत्ता, चारणा, विज्जाहरा, आगासाइवाइणो। -उववाइय सुत्त, १५॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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