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________________ इतिहास और परम्परा ] एक अवलोकन xix से पूर्व ही दीक्षा ग्रहण की, कैवल्य-लाभ किया एवं धर्मोपदेश दिया। उनका प्रभाव समाज में फैल चुका था । तब बुद्ध ने धर्मोपदेश प्रारम्भ किया । बुद्ध तरुण थे, उन्हें अपना प्रभाव समाज में फैलाना था । उनके प्रतिद्वन्द्वियों में बलवान् प्रतिद्वन्द्वी महावीर थे; अतः वे तथा उनके भिक्षु पुनः पुनः महावीर को न्यून बताकर स्वयं को आगे लाने का प्रयत्न करते । ' ब्रह्मसूत्र के भाष्य में शंकराचार्य ने भी तो वैसा ही किया है । उन्होंने सांख्य मत को प्रधान मल्ल मानकर उसकी विस्तृत समीक्षा की है और अन्य अण्वादिकारणवादों का निरसन उसके अन्तर्गत ही मान लिया है ।' महावीर का प्रभाव समाज में इतना जम चुका था कि नवोदित धर्मनायक बुद्ध से उन्हें कोई खतरा नहीं लगता था । इसलिए वे उन्हें नगण्य समझ कर उनकी उपेक्षा करते । गोशालक ने महावीर के साथ ही साधना की थी। महावीर से दो वर्ष पूर्व ही गोशालक अपने-आप को जिन, सर्वज्ञ व केवली घोषित कर चुके थे । गोशालक का धर्मसंघ भी महावीर से बड़ा था, ऐसा माना जाता है। इस स्थिति में महावीर के लिए अपने संघ की सुरक्षा व विकास की दृष्टि से गोशालक की हेयता का वर्णन करना स्वाभाविक ही हो गया था । कुल मिलाकर यह यथार्थ लगता है कि महावीर के अभ्युदय में गोशालक बाधा रूप थे; अत: उन्हें पुन: पुन: उनकी चर्चा करनी पड़ती और बौद्ध संघ के विकास में महावीर बाघा रूप थे; अतः बुद्ध को पुनः पुनः महावीर की चर्चा करनी पड़ती । जमाली महावीर के संघ से ही पृथक् हुए थे; उनके द्वारा महावीर का संघ कुछ टूटा था; और भी टूट सकता था। इसलिए उनकी चर्चाएँ महावीर को करनी पड़ती थीं । महावीर की वर्तमानता में तापसों का भी अधिक प्रभाव था । बाह्य तप पर अधिक बल देते; महावीर उसको यथार्थं नहीं समझते। इसी तरह यदि बुद्ध महावीर के पूर्वकालीन व समबल होते तो अवश्य ही महावीर को उन प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता, जो बुद्ध द्वारा महावीर व उनके संघ एवं सिद्धान्तों के सम्बन्ध में उपस्थित किये गये थे । महावीर और बुद्ध, दोनों ही श्रमण संस्कृति के धर्मनायक होने के नाते एक-दूसरे के बहुत निकट भी थे। निकट के धर्म-संघों में ही पारस्परिक आलोचना - प्रत्यालोचना अधिक होती है । पर यहाँ आलोचना एक ओर से ही हुई है । जैन आगमों का मौन महावीर की ज्येष्ठता और पूर्वकालिक प्रभावशीलता ही व्यक्त करता है । १. बुद्ध ने स्वयं पहले जैन तप का अभ्यास किया था। पर, वे उसमें सफल नहीं हुए । (सम्बन्धित विवेचन के लिए देखें, प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रथम प्रकरण) । २. सर्वव्याखानाधिकरणम् । सू० २८ । ऐतेन सर्वे व्याख्याता व्याख्याताः ।। २८ ।। १.४.२८ 'ईक्षते र्ना शब्दम् (१.१.५ ) इत्यारभ्य प्रधानकारणवाद सूत्रैरेव पुनः पुनराशंक्य निराकृतः...... देवलप्रभृतिभिश्च कैश्चिद्धर्मसूत्रकारैः स्वग्रन्थेष्वाश्रितः, तेन तत्प्रतिषेधे एव यत्नोऽतीव कृतो नाण्वादिकारणवादप्रतिषेधे । तेऽपि तु ब्रह्मकारणवादपक्षस्य प्रतिपक्षत्वात्प्रतिषेद्धव्याः । अतः प्रधानमल्लनि बर्हणन्यायेनातिदिशति —— एतेन प्रधानकारणवादप्रतिषेधन्यायकलापेन सर्वेऽवादिकारणवादा अपि प्रतिषिद्धतया वेदितव्याः । —ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य, प्र० मोतीलाल बनारसीदास, १९६४, पृ० १३६ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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