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________________ १२१ इतिहास और परम्परा पूर्व भवं भरत क्षेत्र के पोत्तनपुर नगर में इसी अवसर्पिणी काल में वह त्रिपृष्ट नामक पहला वासुदेव होगा। क्रमशः परिभ्रमण करता हुआ, वह पश्चिम महाविदेह में धनंजय और धारिणी दम्पती का पुत्र होकर प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होगा। अपने संसार-परिभ्रमण को समाप्त करता हुआ वह इसी चौबीसी में महावीर नामक चौबीसवाँ तीर्थङ्कर होकर तीर्थ की स्थापना करेगा तथा स्वयं सिद्ध, बुद्ध व मुक्त बनेगा।" कुल का अहं अपने प्रश्न का उत्तर सुनकर भरत बहुत आह्लादित हुए। उन्हें इस बात से भी अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि उनका पुत्र पहला वासुदेव, चक्रवर्ती व अन्तिम तीर्थङ्कर होगा। परिब्राजक मरीचि को सूचना व बधाई देने के निमित्त भगवान् के पास से वे उसके पास आए। भगवान् से हुए अपने वार्तालाप से उसे परिचित किया । मरीचि को इससे अपार प्रसन्नता हुई । वह तीन ताल देकर आकाश में उछला और अपने भाग्य को बार-बार सराहने लगा। उच्च स्वर से बोलने लगा-."मेरा कुल कितना श्रेष्ठ है, मेरा कुल कितना श्रेष्ठ है। मेरे दादा प्रथम तीर्थङ्क र हैं । मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती हैं । मैं पहला वासुदेव होऊँगा व चक्रवर्ती होकर अन्तिम तीर्थङ्कर होऊँगा । मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हुए। सब कुलों में मेरा ही कुल श्रेष्ठ है।" कुल के इस अहं से मरीचि ने नीच गोत्र कर्म उपार्जित किया। यही कारण था कि महावीर तीर्थङ्कर होते हुए भी पहले देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में आए, जब कि तीर्थङ्कर का क्षत्रिय-कुल में जन्म लेना अनिवार्य होता है।' महावीर के कुल सत्ताईस भवों का वर्णन मिलता है, जिसमें दो भव मरीचि-भव से पर्व के हैं और शेष बाद के । सत्ताईस भवों में प्रथम भव नयसार कर्मकर का था। इस भव में महावीर ने किसी तपस्वी मुनि को आहार-दान किया था और प्रथम बार सम्यग दर्शन उपाजित किया। सत्ताईस भवों में महावीर ने जहाँ चक्रवर्तित्व औरवासुदेवत्व पाया; वहाँ उन्होंने सप्तम नरक तक का भयंकर दुःख भी सहा । पच्चीसवें भव में तीर्थङ्क रत्व प्राप्ति के बीस निमित्तों की आराधना करते हुए तीर्थङ्कर गोत्र-नामकर्म बाँधा। छब्बीसवें भव में प्राणत नामक दशवें स्वर्ग में रहे और सत्ताईसर्वे भव में महावीर के रूप में जन्म लिया। तापस अमरवती नगर के ब्राह्मण वंश में सुमेध नामक बालक का जन्म हुआ। बचपन में ही उसके माता-पिता का देहान्त हो गया । सुमेध विरक्त हुआ और उसने तापस-प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। चिन्तन में लीन सुमेध को सहसा एक उपलब्धि हुई-"पुनर्भव दुःख है । मुझे उस मार्ग का अन्वेषण करना चाहिए, जिस पर चलने से भव से मुक्ति मिलती है। ऐसा कोई मार्ग अवश्य ही होगा। जिस प्रकार लोक में दुःख का प्रतिपक्ष सुख है, उसी प्रकार भय का प्रतिपक्ष विभव (भव का अभाव ) भी होना चाहिए। उष्ण का उपशम शीत है, वैसे ही रागादि अग्नियों का उपशम निर्वाण है।" चिन्तन का परिणाम अत्यधिक विरक्ति हुआ। हिमालय में पर्णकुटी बना कर वहाँ रहने लगे । तपस्वी सुमेध के दिन समाधि में बीतने लगे। लोकनायक दीपंकर बुद्ध उस समय संसार में धर्मोपदेश करते थे। चारिका करते हुए एक बार वे रम्मक नगर के सुदर्शन महाविहार में आये । नागरिकों ने श्रद्धावनत होकर गंध१. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, प्रथम पर्व, सर्ग ६ श्लो० ३७० से ३६० ; श्री आवश्यकसूत्र, निर्यक्ति, मलयगिरिवृत्ति पत्र सं० २४४ से २४५-१ के आधार पर। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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