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________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार स्तवनादि बनाये । अनेकों श्रावकोंको संघषति बनाये और अनेक शिष्योंको पढ़ाकर विद्वान बनाये । वि० आपके शिक्षागुरु श्री मिनराज सूरिजी और विद्यागुरु मिनवर्द्धन सूरिजी थे। सं० १४७५ के लगभग जिनभद्र सूरजीने आपको उपाध्याय पद दिया था। आपने अनेकों देशोंमें विहार किया और अनेकों कृतियां रची थीं, जिनमें मुख्य ये हैं : (१) पर्वरत्नावली कथा (१४७८ पाटण, गा० ३२१) (२) विज्ञप्ति त्रिवेणी (सं० १४८४ सिन्धु देश मल्लिकवाहणपुरसे पाटण -सूरिजीको प्रेषित), (३) पृथ्वीचन्द्र चरित्र (सं० १५०३ प्रल्हादनपुर शि० सत्यरुचिकी प्रार्थनासे रचित), (४) संदेहदोलावली लघुवृति सं० १४६५, (५-६-७) गुरुपारतन्त्र वृत्ति, उपसर्गहर, भावारिवारणवृत्ति (८) भाषामें-वयरस्वामी रास (गा० ३६ सं० १४६०) (६), कुशल सूरि चौ० (१४८१ मल्लिकवाहणपुर) और संस्कृत भाषाके स्तवनादि (सं० १५०३ लि० पत्र १२ जय० भं०) भी अनेकों उपलब्ध हैं। आपके शिष्य परम्परादिके लिये देखें :--विज्ञप्ति त्रिवेणी, जैनसाहित्यनोसंक्षिप्तइतिहास और युगप्रधान-जिनचन्द्र मूरि (पृ० २०३), जैनस्त्रोत्रसन्दोह भा० २। प्रस्तुत ग्रन्थके पृ० १३ में मुद्रित खरतर पट्टावली भी आपके आदेशसे रचित है। क्षेमराजोपाध्याय (पृ० १३४) छाजहड़ गोत्रीय शाह लीलाकी पत्नी लीलादेवीके आप पुत्र थे। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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