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________________ २६६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह (४) * श्री जिनलाभ सूरि निर्वाण गीतम् * ढाल-आदि जिणिंद मया करो एहनी। देश सकल सिर सौभतौ, थलवट सुथिर सुजाणो रे । जिहां विक्रमपुर' परगडौ, तिहां प्रगट्या मुनि भाणो रे। १॥ गुणवन्ता गुरु वंदोयै । आंकड़ी० । सुमती शाह 'पंचायण', 'पदमादेवी' नन्दा रे। 'वोहिथ' वंश विभूषण, लाल अमोल अमंदा रे । २ गु०। श्री 'जिनमक्ति' सूरीसरु, श्री खरतर गछराया रे । ___ तासु संयोगे आदर्यो, संजम शोभ सवाया रे । ३ । गु० । अरथ सहित सदगुरु दीयउ, 'लक्ष्मीलाम' सुनामो रे । वरस 'अढार चउडोत्तरै', पाम्यौ पाम्यौ पद अभिरामो रे।४। श्री 'जिनलाभ' सूरीसरू गछनायक गुणरागी रे। पंचम काले परगड़ा, श्रुतधर सीम सोभागी रे । ५ । गु०। देश विदेशे विचरता, बहु भवियण प्रतिबोधी रे। सकल कलुषता टालता, आतम धरम विरोधी रे।६। गु०, नगर "गुढे' गुरु आवीया, 'चउतीसै' चउमासै रे। तिहां निज समय प्रकाशने, पहुंता सुर आवासै रे । ७ । गु०। चरण कमलकी थापना, अतिसयवंत विराजै रे। दास 'क्षमाकल्याण' नौ, वंदन हुओ शुभ काजै रे । ८ । गु० । इति श्री जिनलाभ सूरि सदगुरु सिझाय (पत्र १ तत्कालीन, संग्रहमें) Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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