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________________ २७८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह तेहवे देशना सांभलो, श्रावक श्राविका जेह । वाणी जल आषाढ सम, वरसे ध्वनि घन गेह पापस्थान अढार छे, ते मूको & II भविजन्न, जिनवरे भाष्यां जे अछे, ते सुणीये एक मन्न ॥ १० ॥ ढाल - अलगी रहेनी. ए देशी वीर जिणेसर मुखथी प्रकासे, पापस्थान अढार, तेहथी दूर रहो भवि प्राणी, मु (सु ?) णोये आगार अणगार ॥ १ ॥ जिनवर कहेजी, कहेजी, २ जिनवर कहेजी । टेक । पापथानिक पहिल तुमे जाणो, जीवहिंसा नवि करीये, बेंद्री तेंन्द्र चोरिद्री पंचंद्री, वध मां मन नवी धरीये ॥ २ ॥ जि० ॥ एकेंद्रियादिक अनंतकायादिक, तेहना करो पचखाण, एकेंद्रीय तो संसारि नी करणी, अनुमोदना नवि आण || ३ || जिना अणगारी ने सर्वनी जयणा, पटकायाना त्राता " उपजावे बहु साता ।। ४ ।। जि० ॥ मारे किम नवि होय, " कोइ जीवने दुःख नवि देवे, मरि कता दुख उपजे सहु ने रुद्रध्याने नरकगति पाम्यो, ब्रह्मदत्त चक्रवत्ति जोय ॥ ५ ॥ जि० ॥ मृषावाद पाप थानिक बीजुं, जुठु नवी बोलीजे वैर विखादें (विषवादे) मृखा बचन बोले, पतीयारो किम कीजे ॥६ जा झुठ बोल्याथी 'वसु' भूपतिनुं, सिंहासन भुइँ पडीयुं, काल करीने दुरगति पोहतो, झुठु मिंठु लागे जनने, आगारी अणगार मुखथी, झुठ वयण ते जडीयुं ॥ ७ ॥ जि० ॥ कडुयां फल छे तेह, झुठ न बोलस्यो रेह ॥ ८ ॥ जि० ॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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