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________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार इस प्रकार उपरोक्त सारे वर्णनात्मक इस रासको कवि धर्मकीर्ति (यु० जिनचन्द्रसूरि उपाध्याय धर्मनिधानके शि०) ने स० १६८१ के पौष कृष्णा ५ को बनाया। 7 उपरोक्त रास रचनेके पश्चात् सं० १६८६ में गच्छ नायक जिनराजसूरि और आचार्य जिनसागरसूरिके किसी अज्ञात कारण विशेषसे मनोमालिन्य या वैमनस्य* उत्पन्न हुआ। ___फलस्वरूप दोनोंकी शाखायें (शिष्यपरिवार आदि) भिन्न २ हो गई। और तभीसे जिनराजसूरिजीकी परम्परा भट्टारकीया एवं जिनसागरसूरिजीकी परम्परा आचारजीया नामसे प्रसिद्ध हुइ, जो आज भी उन्हीं नामोंसे प्रख्यात है। शाखा भेद होने पर जिनसागरसूरिजीके पक्षमें कौनसे विद्वान और कहांका संघ आज्ञानुयायी रहा। इसका वर्णन निर्वाण रासमें इस प्रकार है :__श्रीजिनसागरजीके आज्ञानुवर्ती साधु संघमें उपाध्याय समयसुन्दरजी ( की सम्पूर्ण शिष्य परम्परा), पुण्य-प्रधानादि युगप्रधान जिनचन्द्रसूरिजीके सभी शिष्य, और श्रावक समुदायमें अहमदाबाद, बीकानेर, पाटण, खम्भात, मुल्तान, जैसलमेरके संघ नायक संखवालादि, मेड़तेके गोलछे, आगरेके ओशवाल, बीलाsके संघवी कटारिये एवं जयतारण, जालौर, पचियाख, पाल्हनपुर, भुज्ज, सूरत, दिल्ली, लाहोर, लुणकरणसर, सिन्ध प्रान्तोंमें मरोट, थट्टा, डेरा, मारवाडमें फलोधी, पोकरण आदिके (ओशवाल-अच्छे २ *जयकीर्तिके गीतके अनुसार यह कारण अहमदाबादमें हुआ था। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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