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________________ परमाणुवाद मगध, मलय, मालव जैसे १६ देशों को एक साथ भस्म कर देती है। कोई तपस्वी साधु अपनी विशेष तपस्या से ही इसे प्राप्त कर सकता है । शास्त्रों में इसकी प्रक्रिया बतायी गई है 'जो व्यक्ति छह महीने तक बेले बेलेका तप करे, उर्ध्वबाहु रहकर हमेशा सूर्य की आतापना ले, और पारणे में एक मुटठी उड़द और एक चुल्लू गरम पानी ग्रहण करे वह तेजोलेश्या को प्राप्त होता है । वह निकेवल पौद्गलिक शक्ति है। इसका प्रमाण भी श्रमरण कालोदायी और भगवान महावीर के प्रश्नोत्तर में मिलता है। श्रमण कालोदायी ने भगवान् महावीर से पूछा- हे भगवन् ! जैसे सचित्त अग्निकाय प्रकाश करती है वैसे ही अचित्त अग्निकाय के पुद्गल प्रकाश करते हैं ? उद्योग करते है ? तपते हैं ? भगवान महावीर ने कहा-हाँ कालोदायिन् ! अचित्त पुद्गल भी प्रकाश व उद्योत करते हैं । अहो भगवन् ! कौन से अचित्त पुद्गल प्रकाश करते यावत् तपते हैं ? अहो कालोदायिन् ! क्रुद्ध अनगार से तेजोलेश्या निकल कर दूर गई हुई दूर गिरती है, पास गई हुई पास गिरती है। वह तेजोलेश्या जहाँ गिरती है, वहाँ वे उसके अचित्त पुद्गल प्रकाश करते यावत् तपते हैं । उक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि तेजोलेश्या भी पुद्गलों की कोई रासायनिक प्रक्रियासी है । बेले बेले पारणा करना उर्ध्वबाहु होकर सूर्य की आतपना लेना, गर्म जल पीना व उड़द के बाकले खाना यह सारा ही क्रिया कलाप क्या तेजोलेश्या का एक रासायनिक फार्मला सा उपस्थित नहीं कर देता है ? अणु शक्ति के प्रकटन में बढ़ते हुए तापक्रम की आवश्यकता होती है । तेजोलेश्या का प्रकटन करनेवाले सारे के सारे कार्य भी शारीरिक उष्मा को उद्दीप्त करने वाले हैं। विशेषता की बात १. सोलसण्ह जणवयाणं, तंजहा-अंगाणं, वंगाणं, मगह णं, मलगारणं, मालवगाणं, अच्छाणं, वच्छाणं, कोच्छाणं, पाढाणं, लाढाणं, वज्जीणं; मोलीणं, कासीणं, कोशलगारणं, अबाहाणं, संभुत्तराणं, घाताये, बहाये, उच्छादणठाए भासीकरण्याए। -भगवती शतक १५ । २. एगाए, सहाए, कुम्मासा पिडियाए, एगेण य वियडासएणं, छठंछठेणं अरिणक्खितेणं, तवोकम्मेणं, उड्ढे बाहाम्रो पगिज्झय पगिज्झय जाव विहरइ सेणं अन्तो छण्हं मासाणं संखित्तविउलतेउलस्से भवइ । -भगवती शतक १५ । ३. अत्थि णं भन्ते ! अच्चित्ता वि पोग्गला प्रोभांसति, उज्जोवेंति तवेंति पभासेंति ? हन्ता अत्थि । कयरेणं भन्ते, अच्चित्ता वि पोग्गला प्रोभासंति जाव पभासेंति ? कुद्धस्स अरणगारस्स तेयलेस्सा निसड्ढासमाणी दूरं गंता दूरं निपत इ, देसं गता देसं निपतइ जहिं जहिं च णं सा निपतइ, तहिं तहिं णं ते अचित्ता वि पोग्गला प्रोभासंति जाव पभासें ति । -भगवती शतक ७ उ० १० । ___Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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