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________________ परमाणुवाद अनुसार स्निग्धत्व और रूक्षत्व परमारण मात्र में मिलता है, और आधुनिक पदार्थ विज्ञान के अनुसार धन विद्यत् और ऋण विद्युत् पदार्थ मात्र में मिलती है। लगता तो यह है कि जैन दार्शनिकों एवं आधुनिक वैज्ञानिकों ने शब्दभेद से एक ही बात कह डाली है। उन्होंने रूक्षत्व और स्निग्धत्व के नाम से और वैज्ञानिकों ने धन विद्यत और ऋण विद्युत् के नाम से पदार्थ के दो धर्मों को अभिहित किया है। सर्वार्थ सिद्धि अध्याय ५ सूत्र ३४ में विद्युत् के विषय में बताया गया है-"स्निग्ध रूक्ष गुण निमित्तो विद्युत्" अर्थात् आकाश में चमकने वाली विद्युत् परमणयों के स्निग्ध और रूक्ष गुणों का परिणाम है । इससे स्पष्ट होता है स्निग्धत्य और रूक्षत्व इन दो गुरगों से धन (Positive) और ऋण (Negative) बिजलियाँ पैदा होती हैं । इसलिए लगभग एक ही बात हो जाती है-यदि हम कहें रूक्षत्व और स्निग्धत्व प्राणविक बन्धनों के कारण हैं या धन और ऋण दो प्रकार के विद्युत् स्वभाव । इसके अतिरिक्त आधुनिक विज्ञान के बन्धन प्रकारों का जब हम अध्ययन करते हैं तो वहाँ भी जैन दर्शन को चरितार्थ करने वाले बहुत से उदाहरण मिलते हैं । वैज्ञानिक जगत् में भारी ऋणाणु (Heavy Electrons) की भी भविष्य वाणी है । वह साधारण ऋणाणुओं से पच्चास गुना अधिक भारी होता है और केवल ऋणाणुओं के ही समुदाय का परिणाम होता है इसलिए उसे नेगेट्रोन (Negatrons) कहा गया है । क्योंकि उसमें केवल निषेध विद्यत् ही तो है । इस प्रकार के अणु जब पूर्ण रूप से प्रकट हो जायेंगे तो क्या वे रूक्ष के साथ रूक्ष का बन्धन चरितार्थ नहीं कर देंगे ? इसी प्रकार प्रोटोन स्निग्ध के साथ स्निग्ध का उदाहरण बन जाते हैं, और न्यूट्रोन स्निग्ध और रूक्ष बन्धन का। आधुनिक परमाणु का बीजाणु भी स्निग्ध और रूक्ष बन्धन का उदाहरण बनता है, क्योंकि वह ऋणाणुओं और धनाणुओं का समुदय मात्र है । डाक्टर बी० एल० शील ने लन्दन से प्रकाशित अपनी पुस्तक 'Positive Science of Ancient Hindus' में स्पष्ट लिखा है कि जैन-दर्शनकार इस बात को भली भाँति जानते थे कि पोजेटिव और निगेटिव विद्युत् कणों के मिलने से विद्यत् की उत्पत्ति होती है । गति साधर्म्य जैन शास्त्रों में परमाणु की गति के सम्बन्ध में बताया गया है-“परमाणु कम से कम एक समय में एक प्राकाश प्रदेश का अवगाहन कर सकता है और अधिक से अधिक उसी समय में चतुर्दश रज्ज्वात्मक सारे विश्व का।" कम से कम (Minimum), और अधिक से अधिक (Maximum) दो गतियों का निरूपण कर देने से अपने आप 1. Science and Culture, November 1937. Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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