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________________ १४ जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान परे वह भी नहीं है । अत: स्याद्वाद का यह डिडिमनाद कि सत्य मात्र सापेक्ष है व पूर्ण सत्य या वास्तविक सत्य उससे परे कुछ नहीं, वह स्वयं सिद्ध है और तर्क की कसौटी पर आधुनिक सापेक्षवाद द्वारा समर्थित है। समालोचना के क्षेत्र में . स्याद्वाद व सापेक्षवाद दोनों ही सिद्धान्तों को अपने अपने क्षेत्र में विरोधी समालोचकों के भरपूर आक्षेप सहन करने पड़े हैं । आक्षेपों के कारण भी दोनों के लगभग समान हैं । दोनों की ही विचारों की जटिलता को न पकड़ सकने के कारण धुरंधर विद्वानों द्वारा समालोचना हुई है, किन्तु दोनों ही वादों में तथा प्रकार की आलोचनाएँ तत्त्व-वेत्ताओं के सामने उपहासास्पद व अज्ञतामूलक सिद्ध हुई हैं । उदाहरणार्थ शकराचार्य जैसे विद्वानों ने स्याद्वाद के हार्द को न पकड़ते हुए लिख मारा--- "जब ज्ञान के साधन, ज्ञान का विषय, ज्ञान की क्रिया सब अनिश्चित है तो किस प्रकार तीर्थकर अधिकृत रूप से किसी को उपदेश दे सकते हैं और स्वयं आचरण कर सकते हैं, क्योंकि स्याद्वाद के अनुसार ज्ञान मात्र ही अनिश्चित है ।" इसी प्रकार प्रो० एस० के० वेलबालकर एक प्रसंग में लिखते हैं-"जैन-दर्शन का प्रमाण सम्बन्धी भाग अनमेल व असंगत है अगर वह स्याद्वाद के आधार पर लिया जाए । S (एस) हो सकता है, S (एस) नहीं हो सकता, दोनों हो सकते हैं; P (पी) नहीं हो सकता, इस प्रकार का निषेधात्मक और अज्ञेयवादी (एग्नोष्टिक) वक्तव्य कोई सिद्धान्त नहीं हो सकता ।" इसी प्रकार कुछ लोगों ने कहा-'यह अजीब बात है कि स्याद्वाद दही और भैस को भी परस्पर एक मानता है । पर वे दही तो खाते हैं भैस नहीं खाते, इसीलिये स्याद्वाद गलत है ।' स्याद्वाद वेत्ताओं के सामने ये सारी आलोचनायें बचपन की सूचक थीं। शंकराचार्य ने स्याद्वाद को संशयवाद या अनिश्चितवाद कहा । सम्भवतः उन्होंने 'स्यादस्ति' का अर्थ 'शायद है' ऐसा समझ लिया हो पर स्याद्वाद संशयवाद नहीं है। इसके अनुसार वस्तु अनन्त धर्मवाली है । हम वस्तु के विषय में निर्णय देते हुए किसी एक ही धर्म (गुण) की अपेक्षा करते हैं किन्तु उस समय वस्तु के अन्य गुण भी उसी वस्तु में ठहरते हैं इसलिये 'स्यादस्ति' अर्थात् 'अपेक्षा विशेष से है' का विकल्प यथार्थ ठहरता है । वहाँ अनिश्चतता और सन्देहशीलता इसलिये नहीं है कि स्यादस्ति के साथ 'एव' शब्द का प्रयोग और होता है। इसका तात्पर्य स्याद्वादी किसी भी वस्तु के विषय में निर्णय देते हुए कहेगा अमुक अपेक्षा से ही ऐसा है । प्रश्न उठता है कि 'अमुक अपेक्षा से' ऐसा क्यों कहा जाये ? इसका उत्तर होगा इसके बिना व्यवहार ही नहीं चलेगा । अमुक रेखा छोटी है या बड़ी यह प्रश्न ही नहीं पैदा होगा जब तक कि Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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