SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान रहे मनुष्य की अपेक्षा से गुरुत्वाकर्षण कोई वस्तु नहीं है । इसलिए वह है भी और नहीं भी। यहाँ प्राईस्टीन ने गुरुत्वाकर्षण को केवल उदाहरण के लिए ही माना है । वैसे उसने वैज्ञानिक जगत् से उसका अस्तित्व ही मिटा दिया है। स्याद्वाद बताता है—वस्तु अनन्त धर्मात्मक है ।" अर्थात् वस्तु अनन्त गुण व विशेषताओं को धारण करने वाली है । जब हम किसी वस्तु के विषय में कुछ भी कहते हैं तो एक धर्म को प्रमुख व अन्य धर्म को गौण कर देते हैं। हमारा वह सत्य केवल आपेक्षिक होता है। अन्य अपेक्षाओं से वही वस्तु अन्य प्रकार की भी होती है। निम्बु के सामने नारंगी को बड़ी कहते हैं किन्तु पदार्थ धर्म की अपेक्षा से नारंगी में जैसे बड़ापन है वैसे ही छोटापन भी। किन्तु वह प्रकट तब होता है जब खरबूजे के साथ उसकी तुलना करते हैं । गुरुत्व व लघुत्व जो हमारे व्यवहार में आते हैं वे मात्र व्यावहारिक या प्रापेक्षिक हैं । वास्तविक (अन्त्य) गुरुत्व तो लोकव्यापी महास्कन्ध में है और अन्त्य लघुत्व परमाणु में । अब इसके साथ सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एडिंगटन के वक्तव्यं की भी तुलना करें। वे लिखते हैं-''मैं सोचता हूँ हम बहुधा सत्य व वास्तविक सत्य के बीच एक रेखा खींचते हैं। एक वक्तव्य जो कि केवल पदार्थ के बाध स्वरूप से ही सम्बन्ध रखता है कहा जा सकता है कि वह सत्य है । एक वक्तव्य जो कि केवल बाह्य स्वरूप को ही व्यक्त नहीं करता परन्तु उसकी सतह में रही सच्चाई को भी प्रकट करता है वह वास्तविक सत्य है ।" स्याद्वाद व सापेक्षवाद की तथा प्रकार की विस्मयोत्पादक समता को देखकर यह तो मान लेना पड़ता है कि स्याद्वाद कोई अधूरे तथ्यों का संग्रह नहीं; अपितु वस्तुतथ्य को पाने का एक यथार्थ मार्ग है जो आज से सहस्रों वर्ष पूर्व जैन दार्शनिकों ने खोज निकाला था। उसके तथ्य 1. Cosmology Old and New p. 197.. २. अनन्त धर्मात्मकं सत् । ३. सौम्यं द्विविधं अन्त्यमापेक्षिकञ्च। तत्र अन्त्यं परमाणोः; आपेक्षिकं यथा नालिकेरापेक्षया आम्रस्य । स्थौल्यमपि द्विविधं तत्र अन्त्यं अशेष लोकव्यापिमहास्कन्धस्य आपेक्षिकं यथा आम्रापेक्षया नालिकेरस्य । -श्री जैन सिद्धान्त दीपिका; प्रकाश १, सूत्र १२ । 4. I think we often draw a distinction between what is true and what is really true. A statement which does not profess to deal with any thing except appearances may be true; a statement which is not only true but deals with the realities beneath the appearances is really true, Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy