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________________ १०८ जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान जक' बताया गया है; तथा 'पृथ्वी ध्रुव है,' 'धु और पृथ्वी स्थिर है' का निरूपण किया गया है। ऋग्वेद में 'पृथ्वी स्थिर है' 'सूर्य' अपनी युक्ति से गमन करता है कहकर पृथ्वी की स्थिरता व सूर्य की गति का स्पष्ट उल्लेख किया गया है । यजुर्वेद में पृथ्वी को ध्रव६, स्थिर और सूर्य को गतिशील बताकर इसी अभिमत की पुष्टि की गई है । वेदों के आधार पर रचे जाने वाले पातञ्जल' महाभाष्य, शतपथ-ब्राह्मण, योगदर्शन' आदि ग्रन्थों में भी पृथ्वी की स्थिरता व सूर्य की चरता पर ही बल दिया गया है। इसी प्रकार बाइबिल, कुरान आदि पृथ्वी के स्थिरवाद सिद्धान्त का समर्थन करते है। जब ज्योतिष और गणित के विकास का युग आया तब भी ज्योतिषाचार्यों एवं गणिताचार्यों ने तार्किक पद्धति से इस विषय में सोचना प्रारम्भ किया। वहाँ भी बराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, श्रीधर, लल्ल, भास्कर तथा महावीर आदि भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध गणिताचार्य प्रायः इस विषय में एकमत रहे । इस बीच में आर्यभट्ट, जिनका जन्म वि० संवत् ५३३ (सन् ४७६) है, अादि कुछ आचार्यों ने पृथ्वी को चर बताया। भारतवर्ष में वह युग भी इस विषय के खण्डन-मंडन का रहा । स्थिरवादी आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में पृथ्वी की स्थिरता का निरूपण तो किया ही, साथ ही साथ उन्होंने चरवाद का भी डटकर खण्डन किया। श्री बराहमिहिर (वि० सं० ५६२) कहते हैं-"कुछ लोग ११ कहते हैं, पृथ्वी चर है और तारक समुदाय स्थिर है । यदि ऐसा है तो अपने १. दिवं च सूर्यः पृथ्वी च देवीमहोरात्रे विभजमानो यदेषि -अथर्ववेद-१३-२-५ । २. पृथ्वी ध्रुवा -अथर्वद-६-८६-६ । ३. स्कम्भेनेमे विष्टभिते द्योश्च भूमिश्च तिष्ठतः -अथर्ववेद-१०-८-२। ४. पृथिवी वितस्थे -ऋग्वेद-१-७२-६ । ५. ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः -ऋग्वेद-१-५०-६ । ६. (क) ध्रुवा, स्थिरा धरित्री -यजुर्वेद-१४-२२। (ख) ध्रुवासि धरित्री ध्रुवा स्थिरा सति धरित्री भूमिरूपा चासि सति । -सायणभाष्य । ७. हिरण्मयेन सविता रथेनदेवो याति भुवनानि पश्यन् -- यजुर्वेद-३३-४३ । ८. (२-१२३) ६. (६, ५, २-४) १०. (३-११ सूत्र) ११. भ्रमति भ्रमस्थितेव क्षितिरित्यपरे वदन्ति नोडुगणः । यद्येवं श्येनादयो न खात् पुनः स्वनिलयमुपेयः । -पंच० सि० अ० १२, श्लोक ६ । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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