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________________ उन्होंने साध्वी रत्नश्री को दीक्षित किया। यही साध्वी रत्नश्री आगे चलकर गच्छ प्रवर्तिनी बनीं। वि०सं० १२६० में आचार्यश्री ने लवणखेड़ में आर्या आनन्दश्री को महत्तरा पद प्रदान किया। इसी नगरी में वि०सं० १२६३ में विवेकश्री, मंगलमति, कल्याणश्री और जिनश्री ने उनके वरदहस्त से भागवती दीक्षा ली और साध्वी धर्मदेवी ने प्रवर्तिनी पद प्राप्त किया । लवणखेड़ में ही वि०सं० १२६५ में आसमति और सुन्दरमति तथा वि०सं० १२६६ में विक्रमपुर में ज्ञानश्री ने उनसे साध्वी दीक्षा ली। वि०सं० १२६९ में चन्द्र श्री और केवल श्री को साध्वी - दीक्षा दी गई और साध्वी धर्मदेवी को महत्तरा पद प्रदान कर उन्हें प्रभावती के नाम से प्रसिद्ध किया गया । ' वि० सं० १२७५ में आचार्यश्री भुवनश्री, जगमति और मंगल श्री को भागवती दीक्षा देकर श्रमणीसंघ में प्रविष्ट कराया। इस प्रकार स्पष्ट है कि आचार्य जिनपतिसूरि के समय खरतरगच्छीय श्रमणीसंघ में पर्याप्त साध्वियाँ थीं। आचार्य जिनपतिसूरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) खरतरगच्छ के नायक बने। इनके समय में भी अनेक महिलाएँ साध्वीसंघ में प्रविष्ट हुईं। इन्होंने वि०सं० १२७९ में श्रीमालपुर में ज्येष्ठ सुदि १२ को चारित्रमाला, ज्ञानमाला और सत्यमाला को साध्वी दीक्षा दी ।' वि०सं० १२७९ माघ सुदि पंचमी को आपने विवेकश्री गणिनी, शीलमाला गणिनी और विनयमाला गणिनी को संयम प्रदान किया। वि० सं० १२८० माघ सुदि द्वादशी को श्रीमालपुर में पूर्ण श्री तथा हेमश्री और वि०सं० १२८१ वैशाख सुदि ६ को जावालिपुर में कमलश्री एवं कुमुदश्री को साध्वी दीक्षा प्रदान की गई।° वि०सं० १२८३ माघ वदि ६ को बाड़मेर में आर्या मंगलमति प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित की गईं।११ वि०सं० १२८४ में बीजापुर में वासुपूज्य जिनालय में प्रतिमा प्रतिष्ठा के अवसर पर श्रावकों द्वारा भव्य महोत्सव का आयोजन किया गया । १२ इसी नगरी में वि०सं० १२८४ आषाढ़ सुदि द्वितीया को आचार्यश्री ने चारित्रसुन्दरी और धर्मसुन्दरी को साध्वी दीक्षा प्रदान की । १३ वि०सं० १२८५ ज्येष्ठ सुदि द्वितीया को बीजापुर में ही उदयश्री ने भागवती दीक्षा ग्रहण की। १४ वि०सं० १२८७ फाल्गुन सुदि ५ को पालनपुर में कुलश्री और प्रमोद श्री साध्वी संघ में सम्मिलित हुईं। १५ वि०सं० १२८८ भाद्रपद सुदि १० को आचार्यश्री ने जावालिपुर में स्तूपध्वज की प्रतिष्ठा की ।१६ इसी वर्ष इसी नगरी में पौष शुक्ल एकादशी को धर्ममति, विनयमति, विद्यामति और चारित्रमति खरतरगच्छीय श्रमणी संघ में दीक्षित की गईं। १७ वि०सं० १२८९ ज्येष्ठ सुदि १२ को चित्तौड़ में राजीमती, हेमावली, कनकावली, रत्नावली और मुक्तावली को आचार्यश्री ने प्रव्रज्या दी ।" चित्तौड़ में इसी वर्ष आषाढ़ वदि २ को १. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० ३४ ३. वही, पृ० ३४ ६. वही, पृ० ३४ ९. वही, पृ० ४४ १२. वही, पृ० ४४ १५. वही, पृ० ४४ १८. वही, पृ० ४९ (४०२) Jain Education International 2010_04 ४. वही, पृ० ३४ ७. वही, पृ० ४४ १०. वही, पृ० ४४ १३. वही, पृ० ४४ १६. वही, पृ० ४४ २. वही, पृ० ३४ ५. वही, पृ० ३४ ८. वही, पृ० ४४ ११. वही, पृ० ४४ १४. वही, पृ० ४४ १७. वही, पृ० ४४ खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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