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________________ विचरते हुए नगर में न पहुँच पाये तो वृक्ष के नीचे ही कायोत्सर्ग में स्थित रहे। आपके ध्यान के प्रभाव से निकट आया हुआ सिंह भी शान्त हो गया । तत्पश्चात् संयमी जीवन में आपको रात्रि में पानी तक रखने की आवश्यकता नहीं पड़ी, पीछे जब समुदाय बढ़ा तो रखने लगे। प्राचीन तीर्थ ओसियां जाने पर मन्दिर का गर्भगृह एवं प्रभु प्रतिमा बालू से ढके हुए थे। आपने जब तक जीर्णोद्धार कार्य न हो विगय त्याग कर दिया। नगर सेठ को मालूम पड़ने पर जीर्णोद्धार हुआ। वहाँ के मन्दिर में आपश्री की प्रतिमा विराजमान है । आपने मारवाड़, गुजरात, सौराष्ट्र आदि अनेक देशों में विहार किया । बम्बई जैसी महानगरी में जैन साधुओं का विचरण सर्वप्रथम आपने ही प्रारम्भ किया। आपका वहाँ बड़ा प्रभाव हुआ, वचन सिद्ध महापुरुष तो थे ही, बम्बई में घर-घर में आपके चित्र देखे जाते हैं। आपने अनेक भव्यात्माओं को देश विरति-सर्वविरति धर्म में दीक्षित किया। आपका विशाल साधु समुदाय हुआ । अनेक स्थानों में जीर्णोद्धार प्रतिष्ठाएँ आपके उपदेशों से सम्पन्न हुईं। सं० १९४९ में महातीर्थ शत्रुंजय की तलहटी में मुर्शिदाबाद निवासी राय बहादुर धनपतसिंह दूगड़ द्वारा विशाल जिनालय "धनवसही" का निर्माण कराया गया। उनकी धर्मपत्नी रानी मैनासुन्दरी को स्वप्न में आदेश हुआ कि जिनालय की प्रतिष्ठा श्री मोहनलाल जी महाराज के कर-कमलों से करावें । उन्होंने पति से स्वप्न की बात कही। उनके मन में भी वही विचार था अतः अपने पुत्र बाबू नरपतसिंह को भेज कर महाराज साहब को पालीताण प्रतिष्ठा के हेतु पधारने की प्रार्थना की 1 बाबू साहब की भक्ति-शक्ति-प्रार्थना स्वीकार कर पूज्यवर अपने शिष्य समुदाय के साथ पालीताणा पधारे और नौ द्वार वाले विशाल जिनालय की प्रतिष्ठा सं० १९४९ मिती माघ सुदि १० को बड़े ठाठ से कराई । पन्द्रह हजार मानवमेदिनी की उपस्थिति में धनवसही के विधि-विधान में गुरु महाराज के साथ उपस्थित यशोमुनि जी का पूर्ण सहयोग था । आपके व आपके शिष्य समुदाय द्वारा अनेक मन्दिरों और दादावाड़ियों का निर्माण व जीर्णोद्धार हुआ। ज्ञान भंडार आदि संस्थाएँ स्थापित हुईं। साहित्योद्धार आदि कार्य भी हुए । सं० १९६४ वैशाख कृष्णा १४ को सूरत नगर में ये युग पुरुष समाधिपूर्वक स्वर्ग सिधारे । विस्तृत परिचय के लिये देखेंमोहनमुनि चरित्र महाकाव्य (संस्कृत) । २. आचार्य श्री जिनयशः सूरि खरतरगच्छविभूषण, वचनसिद्ध योगीश्वर श्री मोहनलाल जी महाराज के पट्टशिष्य श्री यशोमुनि जी का जन्म सं० १९१२ में जोधपुर के पूनमचंद जी सांड़ की धर्मपत्त्री मांगी बाई की कोख से हुआ । इनका नाम जेठमल था । पिताश्री की छाया उठ जाने से माता की आज्ञा से आजीविका और धार्मिक अभ्यास के लिए किसी गाड़े वाले के साथ अहमदाबाद की ओर चल पड़े। इनके पास थोड़ा सा भाता और राह खर्च के लिए मात्र दो रुपये थे । भगवान् पार्श्वनाथ के नाम का संबल था। भूख-प्यास (३८२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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