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________________ है। आत्मा ज्योंही शरीर का त्याग कर देती है त्यों ही सुंदर, स्वस्थ, प्रिय शरीर को आग के सुपुर्द कर दिया जाता है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि शरीर से भिन्न कोई तत्त्व या सत्ता अवश्य होनी चाहिए। आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है, क्योंकि इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी इन्द्रियों द्वारा ज्ञात वस्तुओं की स्मृति विद्यमान रहती है।' आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है, क्योंकि कई बार इन्द्रियों का व्यापार होने पर भी पदार्थों की उपलब्धि नहीं होती। आँख, कान सक्षम हैं, फिर भी पदार्थों का ग्रहण नहीं होना यही प्रतीति कराता है कि इनके अतिरिक्त कुछ और भी है और वही आत्मा है।' ___आत्मा इन्द्रियभिन्न नहीं होती तो एक इन्द्रियविकार दूसरी इन्द्रिय को प्रभावित नहीं करता। इमली को आँख से देखा, पर तुरंत जिह्वा प्रभावित हो गयी। इससे इन्द्रिय से भिन्न आत्मा के अस्तित्व की प्रतीति होती है।' अगर आत्मा का अस्तित्व भिन्न नहीं होता तो आँख से घड़ा देखकर शरीर रूप इन्द्रिय आवश्यकता होने पर क्यों ग्रहण करता? इसी प्रकार “मैं” सुखी-दुःखी आदि का संवेदन आत्मा के अस्तित्व की ही अनुभूति कराते हैं। आत्मा के अस्तित्व को नकारना स्वयं के अस्तित्व को ही नकारना है। आत्मा प्रमाण सिद्ध है:-भारतीय दर्शन में चूँकि आत्मा सर्वोत्कृष्ट एवं महत्वपूर्ण प्रमेय रहा है, अतः उसके संबंध में सभी दर्शनों ने अपने-अपने स्तर से विचार प्रस्तुत किया है। एक चिंतक है-चार्वाक, जो भूतचतुष्टय से चैतन्य की उत्पत्ति मानता है। इसे भूतचैतन्यवाद कहते हैं। दूसरा चिंतन है आत्मवाद। जैन दर्शन आत्मवादी है। चार्वाक पृथ्वी, पानी, हवा और तेज के उचित अनुपात के मिश्रण से चैतन्य की उत्पत्ति मानता है। इन चार भूतों के अतिरिक्त पाँचवें किसी भी तत्व की मान्यता चार्वाक दर्शन में नहीं मिलती। षड्दर्शन 1. षड्दर्शनसमु. टी. 49.157. 2. षड्दर्शन समु. टी. 49.158 3. वही 49.159 4. वही 49.160 63 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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