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________________ भाव से सहते हुए विचरण करते रहे। कतिपय प्रतिज्ञायें : कठोर तपस्या का अभिरूप मोराक सन्निवेशवर्ती ‘दुईज्जन्तक' नामक पाषण्डस्थ आश्रम का कुलपति राजा सिद्धार्थ का मित्र था। कुलपति की अभ्यर्थना पर महावीर ने अपना वर्षावास वहीं करने का निश्चय किया। महावीर की कठोर निःस्पृही साधना देखकर आश्रमवासी दाँतों तले अँगुली दबाने लगे। संयोगवश उस वर्ष पर्याप्त वर्षा न होने के कारण वनस्पति, घास आदि पर्याप्त मात्रा में उत्पन्न नहीं हुई। फलत: गायें आकर पर्णकुटी की घास खाने लगीं। आश्रमवासी उन्हें हटाकर अपनी पर्णकुटियों की रक्षा करने लगे। पर निष्परिग्रही महावीर ने कभी ऐसा नहीं किया। वे तो अपने ध्यान में दत्तचित्त रहे। आश्रमवासियों ने इसकी शिकायत कुलपति से की। कुलपति ने महावीर से कहा कि कम से कम आपको अपनी पर्णकुटी की रक्षा तो करनी चाहिए। महावीर कुलपति के आग्रह से सहमत नहीं हो सके और उन्होंने यह निश्चय इसलिए किया कि वे किसी को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहते थे। वे तो पूर्ण समभावी थे। प्रस्थान करने के पूर्व साधक महावीर ने निम्नलिखित पाँच प्रतिज्ञायें कीं।११ १. अप्रीतिकारक स्थान में वास नहीं करूंगा। २. सदैव ध्यानस्थ रहूँगा। ३. मौनव्रती रहूँगा। ४. पाणितल में भोजन ग्रहण करूँगा और ५. गृहस्थों का विनय नहीं करूंगा। मोराकसनिवेश से विहार कर महावीर अस्थिग्राम पहँचे और वहीं वे अनुमति लेकर शूलपाणि यक्ष के आयतन में ठहर गये। कहा गया है, एक बलशाली बैल, जिसकी सेवा-सुश्रुषा की ओर ग्रामवासियों ने उपेक्षा दिखाई, मर कर यक्ष हो गया था और वही उन सब को सताता था। उसी के सम्मान में ग्रामवासियों ने यह मन्दिर बनवाया था। विकट स्थिति देखकर लोगों ने महावीर को वहाँ ठहरने के लिए मना किया, फिर भी वे उसी मन्दिर में ध्यानस्थ हो गये। नियमानुसार रात्रि में यक्ष आया और उसने महावीर को विविध प्रकार के तीव्र कष्ट दिये। परन्तु वे साधना-पथ से विचलित नहीं हुए। इस घटना से यक्ष को बड़ा आश्चर्य हुआ। अन्त में उसने भगवान् से क्षमा मांगी और पश्चात्ताप करने लगा। फलत: महावीर ने उसे प्रतिबोध दिया- “तू आत्मा को पहचान। आत्मवत् मानकर किसी को कष्ट न दे। इन पापों का फल बड़ा दुःखदायी होता है।” यक्ष ने भगवान् की आज्ञा सहर्ष स्वीकार की और नतमस्तक होकर वहाँ से चला गया। १२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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