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________________ विचार की आधारभत्ति : नयवाद / ६३ नहीं होता, वह अभेद का शुद्ध रूप है। इसे निर्विकल्प महासत्ता कहा जाता है। जहां जाति या समुदाय का बोध होता है, वह अभेद का अशुद्ध रूप है । इसमें अभेद और भेद—दोनों मिश्रित हैं। 'मनुष्य जाति' में मनुष्यत्व भिन्न है, किन्तु शेष जातियों से वह भिन्न है, इसलिए उसे 'अवान्तर सामान्य' कहा जाता है। भेद के भी दो रूप बनते हैं—शुद्ध भेद और अशुद्ध भेद । पदार्थ का वह अवयव जिसके दो भाग न किए जा सकें, शुद्ध भेद है। इसे 'अन्त्य-विशेष' कहां जाता है । मध्यवर्ती सारे भेद या खंड अशुद्ध भेद हैं। वे 'अवान्तर विशेष' कहलाते ऋजुसूत्र इस नय के अनुसार क्रियाकाल और निष्ठाकाल का आधार एक द्रव्य नहीं हो सकता। साध्य-अवस्था और साधन-अवस्था का काल भिन्न होगा। तब भिन्न काल का आधारभूत द्रव्य अपने आप भिन्न होगा। दो अवस्थाएं समन्वित नहीं होती। भिन्न अवस्थावाचक पदार्थों का समन्वय नहीं होता। इस प्रकार यह पौर्वापर्य, कार्यकारण आदि अवस्थाओं की स्वतंत्र सत्ता का समर्थन करने वाली दृष्टि है। शब्दाश्रयी नय अर्थायी नय में अर्थ मुख्य होता है, शब्द गौण । शब्दायी नय में शब्द के अनुसार अर्थ का बोध होता है, इसलिए वहां शब्द मुख्य होता है, अर्थ गौण। शब्दायी नय तीन है-शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत। शब्दनय शब्दनय भिन्न-भिन्न लिंग, वचन आदि युक्त शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। यह शब्दरूप और उसके अर्थ का नियामक है । व्याकरण के लिंग, वचन आदि की अनियामकता को यह प्रमाणित नहीं करता। इसका अभिप्राय यह है १. पुल्लिंग का वाच्य अर्थ स्त्रीलिंग का वाच्य नहीं बन सकता । पहाड़ का जो अर्थ है वह 'पहाड़ी' शब्द व्यक्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार स्त्रीलिंग का वाच्य अर्थ पुल्लिंग का वाच्य नहीं बनता । 'नदी' के लिए 'नद' शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता। फलित यह है-जहां शब्द का लिंग-भेद होता है, वहां अर्थ-भेद होता २. एक वचन का जो वाच्य अर्थ है, वह बहुवचन का वाच्यार्थ नहीं होता। ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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