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________________ ६० / जैन दर्शन और अनेकान्त साधक है। प्रमाण की दृष्टि से द्रव्य और पर्याय में कथंचित् अभेद है । उससे भेदाभेद का युगपत् ग्रहण होता है । नैगमनय के अनुसार द्रव्य और पर्याय का सम- स्थिति में युगपत् ग्रहण नहीं होता । अभेद का ग्रहण भेद को गौण बना डालता है और भेद का ग्रहण अभेद को । मुख्य प्ररूपणा एक की होगी। प्रमाता जिसे चाहेगा उसकी होगी । आनन्द चेतना का धर्म है | चेतना आनन्द है— इस विवक्षा में आनन्द मुख्य बनता है, जो कि भेद है— चेतना की ही एक विशेष अवस्था है। आनन्दी जीवन की बात छोड़िए- इस विवक्षा में जीव मुख्य ै, जो अभेद है - आनन्द जैसी अनंत सूक्ष्म- स्थूल विशेष अवस्थाओं का अधिकरण है । I नैगमनय का अभिप्राय नैगमनय भावों की अभिव्यंजना का व्यापक स्रोत है । 'आनंद छा रहा है - यह ऋजुसूत्र नय का अभिप्राय है । इससे केवल धर्म या भेद की अभिव्यक्ति होती है । 'आनंद कहां !' – यह उससे व्यक्त नहीं होता । 'द्रव्य एक है' - यह संग्रहनय का अभिप्राय है । किन्तु 'द्रव्य में क्या है ? ' - यह नहीं जाना जाता । आनंद चेतना में होता है और उसका अधिकरण चेतना ही है, यह दोनों के संबंध की अभिव्यक्ति है । यह नैगमनय का अभिप्राय है । इस प्रकार गुण- गुणी, अवयव अवयवी, क्रिया- कारण, जाति-जातिमान् आदि में जो भेदाभेद-सम्बन्ध होता है, उसकी व्यंजना इस दृष्टि से होती है । पराक्रम और पराक्रमी को सर्वथा एक माना जाए तो वे दो वस्तु नहीं हो सकते। यदि उन्हें सर्वथा भिन्न माना जाए तो उनमें कोई संबंध नहीं रहता । वे दो हैं - यह भी प्रतीति-सिद्ध है । उनमें सम्बन्ध है - यह भी प्रतीति-सिद्ध है । किन्तु हम दोनों को शब्दाश्रयी ज्ञान द्वारा एक साथ जान सकें या कह सकें यह प्रतीति सिद्ध नहीं, इसलिए नैगमदृष्टि है, जो अमुक धर्म के साथ अमुक धर्म का सम्बन्ध बताकर यथासमय एक-दूसरे की मुख्य स्थिति को ग्रहण कर सकती है। 'पराक्रमी हनुमान' इस वर्णन शैली में हनुमान की मुख्यता होगी। हनुमान के पराक्रम का वर्णन करते समय उसकी (पराक्रम की) मुख्यता अपने आप हो जाएगी। वर्णन की यह सहज शैली ही इस दृष्टि का आधार है । I लोक व्यवहार : संकल्प की सत्यता इसका दूसरा आधार लोक व्यवहार है। लोक-व्यवहार में शब्दों के कितने और Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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