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________________ ३६ / जैन दर्शन और अनेकान्त ग्रहण नहीं करते या जब तक ये हमारे या अन्य किसी प्राणी के मानस में अपना अस्तित्व नहीं रखते, तब तक या तो उनका सर्वथा अस्तित्व ही नहीं होता या फिर वे किसी सनातन शक्ति के मानस में अपना अस्तित्व रखते हैं। आइन्स्टीन यह प्रकट करके कि आकाश-काल (Space-time) केवल अन्तर्ज्ञान के रूप हैं जिनको रंग, रूप और आकार की भांति चेतना से विलग नहीं किया जा सकता—इस तर्क की गाड़ी को अपनी अन्तिम सीमा तक ले गए। आकाश का अस्तित्व केवल पदार्थों के क्रम या उनकी व्यवस्था में है-इसके अतिरिक्त वह कुछ नहीं है। इसी प्रकार काल घटनाओं के एक क्रम के अतिरिक्त, जिससे हम उसे मापते हैं और कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखता। वस्तुवाद स्यावाद के अनुसार वर्ण, गंध, रस और स्पर्श का अस्तित्व मानसिक नहीं है। ये पुद्गल के पर्याय (विवर्त) हैं। इन्हीं की अपेक्षा वे अशाश्वत हैं।' वर्णादि चतुष्टय की विविधता, चेतना या बाह्य वस्तु-सापेक्ष है, किन्तु उसका अस्तित्व चेतना या बाह्य वस्तु-सापेक्ष नहीं है । जैसे एकत्व, पृथकत्व सहज होता है, वैसे ही उनकी वर्णादि-चतुष्टयी की परिणति भी सहज होती है । छोटा-बड़ा, लघु-गुरु, ऋजु-वक्र जैसे सापेक्ष धर्म हैं—दो वस्तुओं की तुलना में उत्पन्न धर्म हैं, वैसे वर्णादिक . चतुष्टयी सापेक्ष धर्म नहीं है। यह वस्तुवाद है । स्पर्श मूल शक्ति है । रूखा, चिकना-ये उसकी अभिव्यक्ति के प्रकार हैं। इनकी कोई स्थायी सत्ता नहीं है । सौन्दर्य-असौन्दर्य, उपयोगी-अनुपयोगी आदि की कल्पना चेतना का रूप है । पर किसी वस्तु की अस्तिता चेतना का रूप नहीं है । दिक् और काल उपयोगितावाद के तत्त्व हैं । उनकी वास्तविक सत्ता नहीं है। आकाश और दिक् स्याद्वाद के अनुसार विश्व की अखण्डता चतुरूपात्मक है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चारों के बिना उसकी व्याख्या नहीं हो सकती। द्रव्य अनन्त गुणों १. डॉ. आइनस्टीन और जन्माण्ड फ. १८ २. परमाणुपोग्गलेणं भन्ते? किं सासए, सिय असासए? गोयमा सिय सासए, सिय असासए । से केण डेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ-सिय सासए? गोयमा दवट्ठयाए, सासए, वनपज्जवेहिं जाव फासपज्जवेहि, असासए।-भग०, १४/४९-५० ३. उत्तराव्ययन अध्ययन २८ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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