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________________ संगठन और विघटन प्रत्येक अस्तित्व का प्रचय (काय, प्रदेश राशि) होता है। पुद्गल को छोड़कर शेष चार अस्तित्वों का प्रचय स्वभावतः अविभक्त है । उसमें संगठन और विभाजन नहीं होता । पुद्गल का प्रचय स्वभाव से अविभक्त नहीं होता । उसमें संगठन और विघटन — ये दोनों घटित होते हैं । एक परमाणु का दूसरे परमाणुओं के साथ योग होने पर स्कन्ध के रूप में रूपान्तरण हो जाता है और उस स्कन्ध के सारे परमाणु वियुक्त होकर केवल परमाणु रह जाते हैं। वास्तविक अर्थ में सामुदायिक परिणमन पुद्गल में ही होता है । दृश्य अस्तित्व केवल पुद्गल ही है । जगत् के नाना रूप उसी के माध्यम से निर्मित होते हैं। यह जगत् एक रंगमंच है । उसी पर कोई अभिनय कर रहा है तो वह पुद्गल ही है । वही विविध रूपों में परिणत होकर हमारे सामने प्रस्तुत होता है । उसमें जीव का योग भी होता है, किन्तु उसका मुख्य पात्र पुद्गल ही है । अस्तित्व के लिए परिणमन अनिवार्य I द्वैतवाद / २१ अस्तित्व में परिवर्तन होने की क्षमता है । जिसमें परिवर्तन होने क्षमता नहीं होती, वह दूसरे क्षण में अपनी सत्ता बनाए नहीं रख सकता । अस्तित्व दूसरे क्षण में रहने के लिए उसके अनुरूप अपने आप में परिवर्तन करता है और तभी वह दूसरे क्षण में अपनी सत्ता को बनाए रख सकता है । एक परमाणु अनंतगुना काला है, वही परमाणु एक गुना काला हो जाता है। जो एक गुना काला होता है, वह कभी अनन्त गुना काला हो जाता है । यह परिवर्तन बाहर से नहीं आता । यह द्रव्यगत परिवर्तन है । इसमें भी अनन्त गुणहीन और अनन्तगुण अधिक तारतम्य होता रहता है । अनन्तकाल के अनन्त क्षणों और अनन्त घटनाओं में किसी द्रव्य को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए अनन्त परिणमन करना आवश्यक है। यदि उसका परिणमन अनन्त न हो तो अनन्तकाल में वह अपने अस्तित्व को बनाए नहीं रख सकता । दो शक्तियां : ओघ और समुचित अस्तित्व में अनन्त धर्म होते हैं, कुछ अव्यक्त और कुछ व्यक्त । प्रश्न हुआ— ‘क्या घास में घी है?' इसका उत्तर होगा—- 'घास में घी है । किन्तु व्यक्त नहीं है । ' 'क्या दूध में घी है ?' 'दूध में घी है, पर पूर्ण व्यक्त नहीं है। दूध को बिलोया या दही को बिलोया, घी निकल आया ।' अव्यक्त धर्म व्यक्त हो गया । द्रव्य में 'ओघ' और 'समुचित' - ये दो प्रकार की शक्तियां काम करती हैं । 'ओघ' नियामक शक्ति है । उसके आधार पर कारण-कार्य के नियम की स्थापना की Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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