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________________ १६ / जैन दर्शन और अनेकान्त पृथक् कहीं धौव्य नहीं मिलता। दोनों विरोधी स्वभाव के हैं, पर दोनों में सह-अस्तित्व है और दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं I कण और प्रतिकण का सिद्धांत I 1 द्रव्य में शाश्वत और अशाश्वत का विरोधी युगल विद्यमान है । उसमें केवल एक विरोधी युगल ही नहीं किंतु ऐसे अनंत विरोधी युगल विद्यमान हैं। उन सबमें सह-अस्तित्व है । विरोधी और सह-अस्तित्व -- ये दोनों सार्वभौम नियम हैं । इस जगत् में कोई भी ऐसा अस्तित्व नहीं है जिसका पक्ष हो और प्रतिपक्ष नहीं हो तथा पक्ष और प्रतिपक्ष में सह-अस्तित्व न हो । यह दार्शनिक सत्य अब वैज्ञानिक सत्य भी बन रहा है । वैज्ञानिक जगत् में प्रति-कण और प्रति-पदार्थ के सिद्धांत मान्यता प्राप्त कर रहे हैं । परमाणु में जितनी संख्या एलेक्ट्रोन, प्रोटोन, न्यूट्रोन आदि कणों की होती है, उतनी ही संख्या प्रति कणों की भी होती है। एलेक्ट्रोन का प्रति-कण पोजिट्रोन, प्रोटोन का प्रति- प्रोटोन और न्यूट्रोन का प्रति-न्यूट्रोन होता है। परमाणु के नाभिक का जब विखंडन होता है तब ये प्रति - कण एक सेकेण्ड के करोड़वें भाग से भी कम समय के लिए अस्तित्व में आते हैं । उस समय कण और प्रति कण में टकराव होता है । फलस्वरूप गामा किरणें या फोटोन्स पैदा होते हैं । 1 वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि प्रति-कण कण का प्रतिद्वन्द्वी होते हुए भी उसका पूरक है । वे दोनों साथ-साथ रहते हैं । परस्पर एक-दूसरे का सहयोग करते हैं और उनमें क्रिया-प्रतिक्रिया का व्यवहार भी चलता है । उनके सह-अस्तित्व या सहयोग, विरोध या संघर्ष, क्रिया या प्रतिक्रिया को पेण्डुलम के उदाहरण से समझा सकता है। चार विरोधी युगल अनेकान्तवाद के आधार पर चार विरोधी युगलों का निर्देश किया जाता है— १. शाश्वत और परिवर्तन २. सत् और असत् (अस्तित्व और नास्तित्व) ३. सामान्य और विशेष ४. वाच्य और अवाच्य । इन चार विरोधी युगलों का निर्देश केवल एक संकेत है। द्रव्य में इस प्रकार के अनन्त विरोधी युगल होते हैं । उन्हीं के आधार पर अनेकान्त का सिद्धान्त प्रतिष्ठित हुआ है । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only + www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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