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________________ १६० / जैन दर्शन और अनेकान्त आनन्द श्रावक इसका एक उदाहरण है। वह बहुत धनाढ्य था पर साथ ही बहत संयमी था। सीधा-सादा रहन-सहन, साधारण खान-पान और सीमित कपड़े—यह उसका जीवन था। आज की स्थिति इसके विपरीत है। वर्तमान मनुष्य अपनी साज-सज्जा पर, अपने खान-पान पर, अपने कार्यों पर, अपने परिजनों की ब्याह-शादी में चाहे जितना खर्च कर देता है पर समाज के लिए नहीं। नैतिकता : दो सूत्र जैन श्रावक के लिए एक व्रत का निर्देश दिया गया— भोगोपभोग परिमाण व्रत। नैतिकता की पहली शर्त है-इच्छा परिमाण और उसकी अन्तिम बात है भोगोपभोग की सीमा। जब इच्छा परिमित होती है और भोगोपभोग सीमित होता है, तब प्रामाणिकता, अर्थार्जन के साधनों में शुद्धि आदि अपने आप फलित होने लगते हैं। इनका परस्पर सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । जहां भोग की लालसा है, वहां क्रूरता अवश्य है। क्रूर बने बिना अधिक पदार्थों को जुटाया नहीं जा सकता । क्रूरता बढ़ेगी तो अर्थार्जन के साधन शुद्ध नहीं रहेंगे। अर्थार्जन के साधन अशुद्ध होंगे तो अप्रामाणिकता बढ़ेगी। यह सारा जो चक्र है, वह इच्छा-परिमाण और भोगोपभोग की सीमा—इन दोनों के बीच में है। अगर ये दो होते हैं तो नैतिकता फलित होने लगती है। ये दो नहीं होते हैं तो अर्थार्जन और मानवीय सम्बन्ध में गड़बड़ियां होने लगती हैं। इन दो सूत्रों पर जैन श्रावक के जीवन में बहुत विचार किया गया है-एक जैन श्रावक इच्छा का परिमाण करे, भोगोपभोग की सीमा करे। साम्यवाद की समस्या भोगोपभोग की समस्या ने आर्थिक समस्या को जटिल बनाया है। गरीबी और भुखमरी की समस्या इतनी जटिल नहीं है जितनी जटिल है भोगोपभोग की समस्या। अगर यह समस्या हल हो जाए तो गरीबी की समस्या भी कम हो जाए । साम्यवादी देशों में भोग-सामग्री पर बहुत नियन्त्रण था। क्योंकि वह रोटी की समस्या सुलझाने में बाधक बन रही थी। किन्तु मनुष्य की प्रकृति है, वह सुख-सुविधा, भोग की सामग्री की लालसा की बात को मन से निकाल नहीं पाता। साम्यवादी देशों में आज भोगोपभोग की समस्या बड़ी उग्र बनी हुई है और प्रश्न प्रस्तुत हो रहा है यह भोगोपभोग की लालसा साम्यवाद को कहां ले जाएगी? ०० ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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